SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौबीस तीर्थंकर कर चुकी थी और महाराज प्रसेनजित उसके अनुकूल वर की खोज में थे। कुमारी प्रभावती ने एक दिन किन्नरियों का एक गीत सुन लिया, जिसमें पार्श्वकुमार के अनुपम रूप की प्रशंसा के साथ-साथ उस कन्या के महाभाग्य का बखान था, जो उसकी पत्नी बनेगी। राजकुमारी पार्श्वकुमार के प्रति पूर्वराग से ग्रस्त हो गयी। उसने मन में संकल्प धारण कर लिया कि वह विवाह करेगी तो उसी राजकुमार से अन्यथा आजन्म अविवाहिता ही रहेगी । कोमल मन ने इसकी अभिव्यक्ति सखियों के सम्मुख की और राजकुमारी की हितैषिणी उन सखियों ने यह संवाद राजा प्रसेनजित तक पहुँचा दिया। अब प्रयत्न प्रारम्भ हुए। महाराजा स्वयं वाराणसी नरेश महाराज अश्वसेन के समझ इस प्रार्थना के साथ पहुँचाना ही चाहते थे कि एक संकट आ उपस्थित हुआ। 124 कलिंग में उन दिनों यवनराज का शासन था। वह अपने युग का एक शक्तिशाली शासक था । यवनराज ने जब कुमारी के रूपगुण की ख्याति सुनी, तो उसे प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा। उसने महाराजा प्रसेनजित को सन्देश भिजवाया कि प्रभावती का हाथ मेरे हाथ में दो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। इस धमकी से राजा प्रसेनजित विचलित हो गए थे। यवनराज की शक्ति के दबाव में भी भला राजा अपनी कन्या उसे कैसे दे देते? अब उनके पास अन्य शासकों से सहायता की याचना करने के अरिरिक्त कोई मार्ग नहीं था। निदान, उन्होंने अपना दूत महाराज अश्वसेन के दरबार में भेजा । दूत ने सारी कथा प्रस्तुत कर दी। राजकुमारी के मन में पार्श्वकुमार के प्रति प्रेम का जो प्रबल भाव था, दूत ने महाराजा अश्वसेन को उससे भी अवगत किया और प्रार्थना की कि संकट की इस घड़ी में कुशस्थल की स्वाधीनता और राजकुमारी प्रभावती के धर्म की रक्षा कीजिए । महाराजा अश्वसेन को यवनराज का यह अनीतिपूर्ण दुराग्रह उत्तेजित कर गया । उन्होंने दूत को महाराज प्रसेनजित की सहायता करने का आश्वासन देकर विदा किया। और युद्ध की तैयारी का आदेश दिया । तुरन्त ही सेन्यदल शस्त्र से सुसज्जित होकर प्रयाण हेतु तत्पर हो गया। महाराजा स्वयं इस विशालवाहिनी का नेतृत्व करने के लिए प्रस्थान कर ही रहे थे कि युवराज पार्श्वकुमार उपस्थित हुए और उन्होंने विनयपूर्वक निवेदन कियाकि युवा पुत्र के होते हुए महाराजा को यह कष्ट न करना होगा। मुझे आदेश दीजिए - मैं यवन सेना का दमन करने की पूर्ण क्षमता रखता हूँ। मेरे भुजबल के परीक्षण का उचित अवसर आया है । कृमया यह दायित्व मुझे सौंपिए । पिता अपने पुत्र की शक्ति से परिचित थें उन्होंने सहर्ष अपनी सहमति व्यक्त कर दी। वाराणसी की सेना ने राजकुमार पार्श्वकुमार के उत्साहवर्द्धक नेतृत्व में प्रयाण किया। इसका समाचार पाकर ही यवनराज सन्न रह गया। पार्श्वकुमार के पराक्रम और शौर्य से वह भला कैसे अपरिचित रह सकता था ? उसका शक्ति का दम्भ फीका पड़ने लगा। उसका आमना-सामना जब पार्श्वकुमार से हुआ तो उनके प्रतापी व्यक्तित्व को देख कर उसकी विजय की रही-सही आशा भी ध्वस्त हो गयी । पार्श्वकुमार ने यवनराज से कहा कि तुम आतंकित प्रतीत होते हो। मैं शक्तिशाली हूँ, किन्तु तुम्हारी तरह निरीह प्रजा और शान्तिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy