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दयनीय बना दिया था। वह भगवान के चरण-कमलों से लिपट गया और दीन वाणी में बार-बार क्षमा-प्रार्थना करने लगा।
चौबीस तीर्थंकर
भगवान पार्श्वनाथ स्वामी तो परम वीतरागी थे। उनके लिए न कोई मित्र का विशिष्ट स्थान रखता था और न ही किसी को वे शत्रु मानते थे। उनके लिए धरणेन्द्र और मेघमाली में कोई अन्तर नहीं था । वे न अपने हितैषी धरणेन्द्र पर प्रसन्न थे और न घोर उपद्रवों द्वारा कष्ट व बाधा पहुँचाने वाले मेघमाली (कमठ) के प्रति उनके मन में रोष का ही भाव था । भगवान ने कमठ को आश्वस्त किया और वह धन्य हो गया । धरणेन्द्र भी भगवान की वन्दना कर विदा हो गया और कमठ भी एक नवीन मार्ग अपनाने की प्रेरणा के साथ चला गया। भगवान ने भी उस स्थल से विहार किया ।
दीक्षोपरांत 83 दिन तक भगवान इस प्रकार अनेक परीषहों और उपसर्गों को क्षमा व समता की प्रबल भवना के साथ झेलते रहे एवं छद्मस्थावस्था में विचरणशील बने रहे। इस अवधि में भगवान ने अनेक कठोर तप एवं उच्च साधनाएँ कीं । अन्ततः 84वें दिन वे वाराणसी के उसी आश्रमपद उद्यान में लौट आए जहाँ उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। वहाँ पहुँचकर घातकी वृक्ष तले प्रभु ध्यान मग्न खड़े हो गए। अष्टम तप के साथ शुक्लध्यान के द्वितीय चरण में प्रवेश कर भगवान ने घाकिकर्मों का क्षय कर दिया। भगवान को केवलज्ञान - केवलदर्शन की प्राप्ति हो गयी। वह चैत्र कृष्णा चतुर्थी के विशाखा नक्षत्र का शुभ योग था। भगवान के केवली हो जाने की इस तिथि को तो सभी स्वीकार करते हैं, किंतु कतिपय आचार्यों का मत यह है कि यही वह तिथि थी जब कमठ द्वारा भयंकर उपसर्ग प्रस्तुत किए गए थे, जबकि शेष इस तिथि को उस प्रसंग के अनन्तर की मानते
हैं।
देव - देवेन्द्र को भगवान की केवल ज्ञानोपलब्धि की तुरंत सूचना हो गई। वे भगवान की सेवा में वन्दनार्थ उपस्थित हुए उन्होंने केवलज्ञान की महिमा का पुनः प्रतिपादन किया । सभी लोकों में एक प्रखर प्रकाश भी व्याप्त हो गया !
प्रथम धर्मदेशना
भगवान का प्रथम समवसरण आयोजित हुआ। उनकी अमोल वाणी से लाभान्वित होने को देव - मनुजों का अपार समूह एकत्रित हुआ । माता - पिता ( महाराजा अश्वसेन और रानी वामादेवी ) और प्रभावती को भगवान के केवली हो जाने की सूचना से अपार - अपार हर्ष अनुभव हुआ । समस्त राज - परिवार भगवान की चरणवन्दना हेतु उपस्थित हुआ | नवीन गरिमा- मण्डित भव्य व्यक्तित्व के स्वामी भगवान को शांत मुद्रा में विराजित देखकर प्रभावती के नयन चू पड़े। भगवान तो ऐसे विरक्त थे, जिनके लिए समस्त प्राणी ही मित्र थे और उनमें से कोई भी विशिष्ट स्थान नहीं रखता था ।
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