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________________ 112 राजीमती से विवाह उपक्रम सत्यभामा की बहन राजीमती को कुमार के लिए सर्वप्रकार से योग्य कन्या पाकर श्रीकृष्ण ने कन्या के पिता उग्रसेन से इन सम्बन्ध में प्रस्ताव किया। उग्रसेन ने इस प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार कर लिया। कुमार अरिष्टनेमि ने इन प्रयत्नों का विरोध नहीं किया और न ही वाचिक रूप से उन्होंने अपनी स्वीकृति दी । चौबीस तीर्थंकर यथासमय वर अरिष्टनेमि की भव्य वारात सजी। अनुपम श्रृंगार कर वस्त्राभूषण सजाकर दूल्हे को विशिष्ट रथ पर आरूढ़ किया गया। समुद्रविजय सहित समस्त दशार्ह, श्रीकृष्ण, बलराम और समस्त यदुवंशी उल्लसित मन के साथ सम्मिलित हुए। बारात की शोभा शब्दातीत थी। अपार वैभव ओर शक्ति का समस्त परिचय यह बारात उस समय देने लगी थी। स्वयं देवताओं में इस शोभा का दर्शन करने की लालसा जागी। सौधर्मेन्द्र इस समय चिन्तित थे। वे सोच रहे थे कि पूर्व तीर्थंकर ने तो 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि स्वामी के लिए घोषणा की थी कि वे बाल- ब्रह्मचारी के रूप में ही दीक्षा लेगे। फिर इस समय यह विपरीताचार कैसे ? उन्होंने अवधिज्ञान द्वारा पता लगाया कि वह घोषणा विफल नहीं होगी। वे किञ्चित् तुष्ट हुए किन्तु ब्राह्मण का वेष धारण कर बारात के सामने आ खड़े हुए और श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि कुमार का विवाह जिस लग्न में होने जा रहा है वह महा अनिष्टकारी है। श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण को फटकार दिया। तिरस्कृत होकर ब्राह्मण वेषधारी सौधर्मेन्द्र अदृश्य हो गये, किन्तु यह चुनौती दे गए कि आप अरिष्टनेमि का विवाह कैसे करते हैं ? हम भी देखेंगे। बारात गन्तव्य स्थल के समीप पहुँची। इस समय बधू राजीमती अत्यन्त व्यग्र मन से वर - दर्शन की प्रतीक्षा में गवाक्ष में बैठी थी। राजीमती अनुमप, अनिंद्य सुन्दरी थी। उसके सौन्दर्य पर देवबालाएँ भी ईर्ष्या करती थीं और इस समय तो उसके आभ्यन्तरिक उल्लास ने उसी रूप- माधुरी को सहस्रगुना कर दिया था। अशुभ शकुन से सहसा राजकुमारी चिंता सागर में डूब गयी। उसकी दाहिनी आँख और दाहिनी भुजा जो फड़क उठी थी। वह भावी अनिष्ट की कल्पना से काँप उठी। इस विवाह में विघ्न की आशंका उसे उत्तरोत्तर बलबती होती प्रतीत हो रही थी। उसके मानसिक रंग में भंग तो अभी से होने लगा गया था । सखियों ने उसे धैर्य बँधाया और आशंकाओं को मिथ्या बताया। वे बार-बार उसके इस महाभाग्य का स्मरण कराने लगीं कि उसे अरिष्टनेमि जैसा योग्य पति मिल रहा है। बारात का प्रत्यावर्तन बारात ज्यो - ज्यों आगे बढ़ती थी, सबके मनका उत्साह भी बढ़ता जाता था । उग्रसेन के राजभवन के समीप जब बारात पहुँची कुमार अरिष्टनेमि ने पशु-पक्षियों का करुण क्रन्दन सुना और उनका हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने सारथी से इस विषय में जब पूछा तो उससे ज्ञात हुआ कि इस समीप के अहाते में अनेक पशु-पक्षियों को एकत्रित कर रखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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