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भगवान अरिष्टनेमि
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है। उन्हीं की चीख-चिल्लाहट का यह शोर है। कुमार के प्रश्न के उत्तर में उसने यह भी बताया कि उनके विवाह के उपलक्ष में जो विशाल भोज दिया जायेगा उसमें इन्हीं पशु-पक्षियों का माँस प्रयुक्त होगा। इसी हेतु इन्हें पकड़ा गया है। इस पर कुमार के मन में उत्पन्न करुणा और अधिक प्रबल हो गई। उन्होंने सारथी से कहा कि तुम जाकर इन सभी पशु-पक्षियों को मुक्त कर दो। आज्ञानुसार सारथी ने उन्हें मुक्त कर दिया। प्रसन्न होकर कुमार ने अपने वस्त्रालंकार उसे पुरस्कार में दे दिए और तुरंत रथ को द्वारिका की ओर लौटा लेने का आदेश दिया।
रथ को लौटता देखकर सबके मन विचलित हो गए। श्रीकृष्ण, समुद्रविजय आदि ने उन्हें बहुत रोकना चाहा, किन्तु अरिष्टनेमि नहीं माने।वे लौट ही गए।
यह अशुभ समाचार पाकर राजकुमारी राजीमती तो मूञ्छित ही हो गई। सचेत होने पर सखियाँ उसे दिलासा देने लगीं। अच्छा हुआ कि निर्मम अरिष्टनेमि से तुम्हारा ब्याह टल गया। महाराजा तुम्हारे लिए कोई अन्य योग्यतर वर ढूँढेंगे। किन्तु राजकुमारी को ये वचन बाण से लग रहे थे। वह तो अरिष्टनेमि को मन से अपना पति मान चुकी थी। अत किसी अन्य पुरुष की कल्पना को भी मन में स्थान देना वह पाप समझती थी। उसने सांसारिक भोगों को तिलांजलि दे दी।
दीक्षा-केवलज्ञान
अरिष्टनेमि के भोगकर्म अब शेष न रहे थे। वे विरक्त होकर आत्मकल्याणार्थ संयम ग्रहण करने की इच्छा करने लगे। तभी लोकांतिक देवों ने उनसे धर्मतीर्थ प्रवर्ताने की प्रार्थना की। कुमार अब वर्षीदान में प्रवृत्त हो गए। अपार दान कर वर्ष भर तक वे याचकों को तुष्ट करते रहे। तक भगवान का निष्क्रमणोमत्सव मनाया गया। देवतागण भी इसमें सोत्साह सम्मिलित हुए। समारोह के पश्चात् रत्नजटित उत्तरकुरु नामक सुसज्जित पालक में बैठकर उन्होंने निष्क्रमण किया। इस शिविका को राजा-महाराजाओं और देवताओं ने मिलकर उठाया था।
उज्जयंत पर्वत के सहस्राभ्रवन में अशोक वृक्ष के नीचे समस्त वस्त्रालंकारों का भगवान ने परित्याग कर दिया। इन परित्यक्त वस्तुओं को इंद्र ने श्रीकृष्ण को समर्पित किया था। भगवान ने तेले की तपस्या से पंचमुष्टि लोच किया और शक्र ने उन केशों को अपने उत्तरीय में सँभाल कर क्षीर सागर में प्रवाहित कर दिया। सिद्धों की साक्षी में भगवान ने सावद्य-त्याग रूप प्रतिज्ञा पाठ किया और 1000 पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। यह स्मरणीय तिथि श्रावण शुक्ला षष्ठी और वह शुभ बेला थी चित्रा नक्षत्र की। दीक्षा ग्रहण करते ही भगवान नेमिनाथ को मन:पर्यवज्ञान की प्राप्ति हो गई थी।
आगामी दिवस गोष्ठ में वरदत्त नामक ब्राह्मण के यहाँ प्रभु ने अष्टमतप कर परमान्न से पारणा किया। देवताओं ने 5 दिव्यों की वर्षा कर दान की महिमा व्यक्त की। तदनंतर
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