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कहीं पर क्रोध के मगरमच्छ मुँह फाड़े हुए है, कहीं पर माया के जहरीले साँप फूत्कार कर रहे हैं तो कहीं पर लोभ के भँवर हैं। इन सभी को पार करना कठिन है। साधारण साधक विकारों के भंवर में फंस जाते हैं। कषाय के मगर उन्हें निगल जाते हैं। अनन्त दया के अवतार तीर्थंकर प्रभु ने साधकों की सुविधा के लिए धर्म का घाट बनाया, अणुव्रत और महाव्रतों की निश्चित योजना प्रस्तुत की, जिससे प्रत्येक साधक इस संसार रूपी भयंकर नदी को सहज ही पार कर सकता है।
तीर्थ का अर्थ पल अर्थात् सेतु भी है। चाहे कितनी ही बड़ी से बड़ी नदी क्यों न हो, यदि उस पर पुल है तो निर्बल-से-निबैले व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है। तीर्थंकरों ने संसार रूपी नदी को पार करने के लिए धर्म- शासन अथवा साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी संघ स्वरूप पुल का निर्माण किया है। आप अपनी शक्ति व भक्ति के अनुसार इस पुल पर चढ़कर संसार को पार कर सकते हैं। धार्मिक साधना के द्वारा अपने जीवन को पावन बना सकते हैं। तीर्थंकरों के शासनकाल में हजारों, लाखों व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र व विशुद्ध बनाकर मुक्त होते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि वर्तमान अवसर्पिणीकाल में भगवान् ऋषभदेव ने सर्वप्रथम तीर्थ की संस्थापना की अत: उन्हें तो तीर्थंकर कहना चाहिए परन्तु उनके पश्चाद्वर्ती तेबीस महापुरुषों को तीर्थंकर क्यों कहा जाये ?
कुछ विद्वान् यह भी कहते हैं कि धर्म की व्यवस्था दूसरे तीर्थंकर भी करते हैं, अत: एक ऋषभदेव को ही तीर्थंकर मानना चाहिए अन्य को नहीं।
उल्लिखित प्रश्नों के उत्तर में निवेदन है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अनेकान्त आदि जो धर्म के आधारभूत मूल सिद्धान्त हैं, वे शाश्वत सत्य और सदा-सर्वदा अपरिवर्तनीय है। अतीत के अनन्तकाल में जो अनन्त तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान में जो श्री सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर हैं और अनागत अनन्तकाल में जो अनन्त तीर्थंकर होने वाले हैं उन सबके द्वारा धर्म के मूल स्तम्भस्वरूप इन शाश्वत सत्यों के सम्बन्ध में समान रूप से प्ररूपणा की जाती रही है, की जा रही है और की जाती रहेगी। धर्म के मूल / तत्त्वों के निरूपण में एक तीर्थंकर से दूसरे तीर्थंकर का किंचित्मात्र भी मतभेद न कभी रहा है और न कभी रहेगा, परन्तु प्रत्येक तीर्थंकर अपने-अपने समय में देश, काल व जनमानस की ऋजुता, तत्कालीन मानव की शक्ति, बुद्धि, सहिष्णुता आदि को ध्यान में रखते हुए उस काल और उस काल के मानव के अनुरूप साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका के लिए अपनी-अपनी एक नवीन आचार-संहिता का निर्माण करते हैं।
एक तीर्थंकर द्वारा संस्थापित श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ में काल-प्रभाव से जब एक अथवा अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, तीर्थ में लम्बे व्यवधान तथा अन्य कारणों से भ्रान्तियाँ पनपने लगती हैं, कभी-कभी तीर्थ विलुप्त अथवा विलुप्तप्राय, विशृंखल अथवा शिथिल हो जाता है, उस समय दूसरे तीर्थंकर का समुद्भव होता है और वे विशुद्धरूपेण नवीन तीर्थ की स्थापना करते हैं, अत: वे तीर्थंकर
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