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________________ 14 लोए सव्वसाहूणं' 35 में किसी व्यक्तिविशेष को नमस्कार नहीं किया गया है। जैनधर्म का स्पष्ट अभिमत है कि कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक उत्कर्ष कर मानव से महामानव बन सकता है, तीर्थंकर बन सकता है। तीर्थ और तीर्थंकर तीर्थंकर शब्द जैनधर्म का मुख्य पारिभषिक शब्द है। यह शब्द कब और किस समय प्रचलित हुआ, यह कहना कठिन है। वर्तमान इतिहास से इसका आदि सूत्र नहीं ढूंढा जा सकता। निस्संदेह यह शब्द उपलब्ध इतिहास से बहुत पहले प्राग्- ऐतिहासिक काल में भी प्रचलित था। जैन-परम्परा में इस शब्द का प्राधान्य रहने के कारण बौद्ध साहित्य में भी इसका प्रयोग किया गया है, बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर 'तीर्थंकर शब्द व्यवहृत हुआ है। सामञफलसुत्त में छ: 'तीर्थंकरों' का उल्लेख किया है। किंतु यह स्पष्ट है कि जैनसाहित्य की तरह मुख्य रूप से यह शब्द वहाँ प्रचलित नहीं रहा है। कुछ ही स्थलों पर इसका उल्लेख हुआ किंतु जैनसाहित्य में इस शब्द का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में हुआ है। तीर्थंकर जैनधर्मसंघ का पिता है, सर्वेसर्वा है। जैनसाहित्य में खूब ही विस्तार से 'तीर्थंकर' का महत्त्व अंकित किया गया है। आगम साहित्य से लेकर स्तोत्र-साहित्य तक में तीर्थंकर का महत्त्व प्रतिपादित है। चतुर्विशतिस्तव और शक्रस्तव में तीर्थंकर के गुणों का जो उत्कीर्तन किया गया है, उसे पढ़कर तीर्थंकर की गरिमा-महिमा का एक भव्य चित्र सामने प्रस्तुत हो जाता है तथा साधक का हृदय श्रद्धा से विनत हो जाता है। जो तीर्थ का कर्ता या निर्माता होता है वह तीर्थंकर कहलाता है। जैन परिभाषा के अनुसार तीर्थ शब्द का अर्थ धर्म-शासन है। जो संसार-समुद्र से पार करने वाले धर्म-तीर्थ की संस्थापना करते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये धर्म हैं। इस धर्म को धारण करने वाले श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका हैं। इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा गया है। इस तीर्थ की जो स्थापना करते हैं, उन विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थंकर कहते हैं। संस्कृत साहित्य में तीर्थ शब्द 'घाट' के लिए भी व्यवहृत हुआ है। जो घाट के निर्माता हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। सरिता को पार करने के लिए घाट की कितनी उपयोगिता है, यह प्रत्येक अनुभवी व्यक्ति जानता है। संसार रूपी एक महान् नदी है, उसमें 35 भगवती सूत्र, मंगलाचरण 36 देखिए बौद्ध साहित्य का लंकावतार सूत्र 37 दीघनिकाय, सामञफलसूत, पृ० 16-22 हिन्दी अनुवाद 38 (क) तित्थं पुण चाउवन्नाइन्ने समणसंघो-समणा, समणीओं, सावया, सावियाओ। -भगवती सूत्र, शतक 2, उ० 8, सूत्र 682 (ख) स्थानाङ्ग, 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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