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वैदिक ग्रन्थों में भी निर्ग्रन्थ शब्द मिलता है। सातवीं शताब्दी में बंगाल में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय प्रभावशाली था।28
दशवैकालिक," उत्तराध्ययन और सूत्रकृताङ्ग." आदि आगमों में जिन-शासन, जिनमार्ग, जिनवचन शब्दों का प्रयोग हुआ है। किंतु 'जैनधर्म' इस शब्द का प्रयोग आगम ग्रन्थों में नहीं मिलता। सर्वप्रथम 'जैन' शब्द का प्रयोग जिनभद्रगणी क्षमश्रिमण कृत विशेषावश्यकभाष्य में देखने को प्राप्त होता है।
उसके पश्चात् के साहित्य में जैनधर्म शब्द का प्रयोग विशेष रूप से व्यवहृत हुआ है। मत्स्यपुराण में 'जिनधर्म' और देवी भागवत में 'जैनधर्म' का उल्लेख प्राप्त होता है।
तात्पर्य यह है कि देशकाल के अनुसार शब्द बदलते रहे हैं, किंतु शब्दों के बदलते रहने से 'जैनधर्म' का स्वरूप अर्वाचीन नहीं हो सकता। परम्परा की दृष्टि से उसका सम्बन्ध भगवान ऋषभदेव से है।
जिस प्रकार शिव के नाम पर शैवधर्म, विष्णु के नाम पर वैष्णवधर्म और बुद्ध के नाम पर बौद्धधर्म प्रचलित है, वैसे ही जैनधर्म किसी व्यक्ति-विशेष के नाम पर प्रचलित नहीं है
और न यह धर्म किसी व्यक्ति विशेष का पूजक ही है। इसे ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीर का धर्म नहीं कहा गया है। यह आईतों का धर्म है, जिनधर्म है। जैनधर्म के मूलमंत्र नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो 27 (क) कन्थाकौपीनोत्तरा सङ्कादीनां त्यागिनो यथाजातरूपधरा 'निर्ग्रन्था' निष्परिग्रहा इति संवर्तश्रुतिः।
-तैत्तिरीय-आरण्यक 10|63, सायण भाष्य, भाग-2, बृ० 778 (ख) जाबालोपनिषद् 28 द एज आव इम्पीरियल कन्नौज पृ० 288 29 (क) सोच्चाणं जिण-सासणं-दशवैकालिक 8/25
(ख) जिणमयं, वही 9|3|15 30 जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेंति भावेण -उत्तराध्ययन, 36/264 31 सूत्रकृताङ्ग 32 (क) जेणं तित्थं-विशेषावश्यकभाष्य, गा० 1043
(ख तित्थं-जइणं-वही, गा० 1045 - 1046 33 मत्स्यपुराण 4|13|54 34 गत्वाथ मोहयामास रजिपत्रान् वृहस्पतिः।
जिनधर्म समास्थाय वेद बाह्यं स वेदचित्।। छद्मरूप धरं सौम्यं बोधयन्तं छलेन तान्। जैनधर्म कृतं स्वेन, यज्ञ निन्दापरं तथा।।
-देवी भागवत 4/13/54
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