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________________ 110 चौबीस तीर्थंकर अपारशक्ति एवं पराक्रम के लिए विख्यात थे। जरासंध इससमय का प्रतिवासुदेव था। इधर अत्याचारी कंस का विनाश श्रीकृष्ण ने दुष्टदलन प्रवृत्ति का परिचय देते हुए किया ही था औरउधर प्रतिवासुदेव जरासंध ने इसका प्रतिशोध लेने के बहाने संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। जरासंध ने यादव कुल के ही सर्वनाश का विचार कर लिया था। अत: भारत के पश्चिमी तट पर नया नगर 'द्वारिका' बसाकर कृष्ण स-परिवार वहाँ रहने लगे। इस समय अरिष्टनेमि की आयु कोई 4-5 वर्ष की रही होगी। इस प्रकार भगवान अरिष्टनेमि का जन्म उत्तर भारत में यमुना तट पर हुआ था, किन्तु अधिकांश जीवन पश्चिमी भारत में ही व्यतीत हुआ। वहीं उन्होंने अलौकिक बाल-लीलाएँ भी की। बाल-लीलाएँ कुमार अरिष्टनेमि जन्म से ही अवधिज्ञान के धारक थे, किन्तु सामान्य बालकोचित लीलाधारी बने रहे। वैसे उनके प्रत्येक कार्य से मति-सम्पन्नता और अद्भुत शक्ति का परिचय मिलता था। माता-पिता और अन्य सभी-जो भीउनके कार्यों को देखता, इसी अनुमान पर पहुँचता था कि भविष्य में यह बालक बड़ा शक्तिशाली औरपराक्रमी निकलेगा। उनका कोई काम ऐसा न होता था कि जिसे देखने वाले आश्चर्यचकित न हो जाएँ। राजमहल में एक बार बालक अरिष्टनेमि खेल रहे थे। कौतुकवश उन्होंने मोतियों को मुट्ठियाँ भर-भर कर आँगन में उछाल दिया। माता शिवादेवी बालक के इस अनुचित काम पर उन्हें बुरा-भला कहना ही चाहती थीं कि उन्होंने देखा कि जहाँ-जहाँ मोती गिरे थे, वहाँ-वहाँ सुन्दर वृक्ष उग आए हैं जिन पर मुक्ता-राशियाँ लदी हुई हैं। एक-बारगी वे आश्चर्य-सागर में निमग्न हो गयीं। कुछ पलों बाद उन्होंने बालक से कहा कि और मोती बो दो। भगवान ने उत्तर दिया-"समय पर बोये हुए मोती की फलदायी होते हैं" तब से यह एक सूक्ति एक कहावत हो गयीहै जो बहु प्रचलित है। जरासंध ने अपना प्रतिशोध पूर्ण करने के लिए द्वारिका पर आक्रमण कर दिया। था। श्रीकृष्ण ने अपूर्व साहस ओर शौर्य के साथ युद्ध किया। कुमार अरिष्टनेमि भी इस युद्ध में गए। उनमें इतनी शक्ति थी कि वे चाहते तो अकेले ही जरासंध का संहार कर देते, किन्तु यह वे भलीभाँति जानते थे कि प्रतिवासुदेव (जरासंध) का वध वासुदेव (श्रीकृष्ण) के हाथों ही होना चाहिए। अत: जरासंध का वध श्रीकृष्ण के द्वारा ही हुआ। अरिष्टनेमि इस युद्ध में सम्मिलित अवश्य हुए, किन्तु उन्होंने किसी का भी वध नहीं किया था। अद्भुत शक्तिमत्ता __ कुमार अरिष्टनेमि अद्वितीय शक्तिशाली थे। अभी वे युवा भी न हो पाए थे कि एक बार श्रीकृष्ण के शस्त्रागार में पहुँच गए। वहाँ उन्होंने श्रीकृष्ण का कांतिपूर्ण सुदर्शन चक्र देखा, जिसके विषय में उन्हें वहाँ कहा गया कि इस चक्र को वासुदेव श्रीकृष्ण ही उठा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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