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________________ भगवान अरिष्टनेमि 109 लगे। उन्होंने अनुभव कर लिया था कि उनके जीवन का प्रयोजन इन मिथ्या-जालों में उलझना नहीं, अपितु जन-कल्याण करना है-उन्हें संसार को मोक्ष का मार्ग दिखाना होगा। उनकी शासन- दक्षता ने राज्य भर में सुख का साम्राज्य स्थापित कर दिया था। महाराजा को इसका प्रमाण यह देखकर मिल गया कि उद्यान में सुन्दर मूल्यवान वस्त्राभूषण धारण कर एक साधरण सार्थवाह पुत्र प्रसन्नचित्तता के साथ विचरण कर रहा था। किन्तु अगले ही दिन उन्हें जीवन की नश्वरता का प्रत्यक्ष अनुभव हो गया, जब उन्होंने उसी युवक की शवयात्रा देखी। संसार का वैभव, शक्ति, रूप कोई भी जीवन की रक्षा नहीं कर सकता। उनका मन एकदम उदास और दुःखी हो उठा। रानी प्रीतिमती ने राजा की उदासी का कारण सुना तो वह भी संसार के प्रति विरक्त हो गयी। दोनों ही ने संयम स्वीकार कर लिया और उग्र तपश्चर्या में लग गए-कठोर साधनाएँ करने लगे। दोनों को स्वर्ग-प्राप्ति हुई, वहाँ भी उनका स्नेह सम्बन्ध ज्यों का त्यों ही बना रहा। स्वर्गिक सुखोपभोग की अवधि समाप्त होने पर मुनि अपराजित का जन्म शंख के रूप में और प्रीतिमती का जन्म उनकी रानी यशोमती के रूप में हुआ। अपनी साधना के बल पर अंतत: शंखराजा का जन्म अपराजित विमान देव रूप में उत्पन्न हुआ। भगवान अरिष्टनेमि : जन्म-वंश ___ यमुना तट पर स्थित शौर्यपुर नामक एक राज्य था, जहाँ किसी समय महाराज समुद्रविजय का शासन था। दशाह कहलाने वाले ये 10 भ्राता थे और महाराजा समुद्रविजय इनमें ज्येष्ठतम थे। अत: वे,पथम दशाह कहलाते थे। गुण-रूप-सम्पन्न रानी शिवादेवी इनकी पत्नी थी। स्पष्ट है कि महाराजा विक्रमधन ही इस भव में महाराजा समुद्रविजय थे और महारानी धारिणी का जीव ही इस भव में शिवादेवी के रूप में जन्मा था। अपराजित विमान की स्थिति पर्ण कर शंखराजा का जीव कार्तिक कृष्णा द्वादशी को स्वर्ग से निकलकर महारानी शिवा देवी के गर्भ मेंअवस्थित हुआ। तीर्थंकर के गर्भस्थ हो जाने की सूचना देने वाले 14 दिव्य स्वप्नों का दर्शन रानी ने उसी रात्रि में किया और राजदम्पत्ति हर्ष विभोर हो उठे। श्रावण शुक्ला पंचमी को रानी ने सुखपूर्वक नीलमणि की कांति वाले एक सलोने पुत्र को जन्म दिया। 56 दिक्कुमारियों और देवों ने सुमेरु पर्वत पर भगवान का जन्म कल्याणोत्सव मनाया। गर्भकाल में माता ने अरिष्ट रत्नमय चक्र नेमि देखा था और राजपरिवार समस्त अरिष्टों से वचा रहा अत: नवजात पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा गया। महाराज समुद्रविजय का नाम यादव कुल के प्रतापी सम्राटों में गिना जाता है। इनके एक अनुज थे-वसुदेव। इनकी दो रानियाँ थीं। बड़ी का नाम रोहिणी था जिनके पुत्र का नाम बलराम या बलभद्र था और छोटी रनी देवकी थी जो श्रीकृष्ण की जननी थी। यादव वंश में ये तीनों राजकुमार श्रीकृष्ण, बलराम और अरिष्टनेमि अपनी असाधारण बुद्धि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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