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चौबीस तीर्थंकर
उन दिनों वहाँ राजकुमारी का स्वयंवर रचा हुआ था। दूर-दूर से अनेक राजा-राजकुमार राजकुमारी प्रीतिमती को प्राप्त करने की लालसा से वहाँ एकत्रित थे। घोषणा यह थी कि जो राजा या राजकुमार राजकुमारी के प्रश्नों के सही-सही उत्तर दे देगा उसी के साथ उसका विवाह कर दिया जायगा।
कुमार अपराजित ने रूप परिवर्तनकारी गुटिका की सहायता से अपना स्वरूप बदल लिया। उन्होंने एक अतिसाधारण से व्यक्ति के रूप में स्वयंवर सभा में जाकर पीछे की पंक्ति में स्थान ग्रहण कर लिया। राजकुमारी प्रवचन करती और उपस्थित राजा-राजकुमार अपनी गर्दन झुकाकर बैठ जाते। किसी में भी उत्तर देने की योग्यता न थी। अन्त में राजकुमारी ने पीछे जाकर उस साधारण से प्रतीत होने वाले युवक की ओर उन्मुख होकर अपना प्रश्न प्रस्तुत किया। अपनी विलक्षण त्वरित बुद्धि से कुमार ने तुरन्त उसका उत्तर दे दिया और राजकुमारी ने उस युवक को वरमाना पहना दी।
कुमार की बुद्धि का तो सभी ने लोहा माना, किन्तु शूरवीर और वैभवशली राजागण यह सहन नहीं कर पाए कि उनके होते हुए राजकुमारी किसी दीन-दुर्बल साधारण से व्यक्ति का वरण करे। प्रतिक्रियास्वरूप तथाकथित पराक्रमी नरेशों ने शस्त्र धारण कर लिए। कुमार अपराजित भी इस कला में कहाँ पीछे थे? घोर युद्ध आरम्भ हो गया। सारा सरस वातावरण वीभत्स हो उठा। बुद्धि के स्थान पर अब इस स्थल पर बल के करतब दिखाए जाने लगे। अपराजित कुमार ने बुद्धि का कौशल दिखा चुकने के पश्चात् अपना पराक्रम-प्रदर्शन प्रारम्भ किया तो सभी दंग रह गए। इस कौशल से यह छिपा न रह सका कि साधारण-सा दिखाई देने वाला यह युवक कुमार अपराजित है। मनोनुकूल शूरवीर और बुद्धिमान पति प्राप्त कर राजकुमारी प्रीतिमती का मन-मयूर नाच उठा। दोनों का विवाह पूर्ण उल्लास ओर उत्साह के साथ सम्पन्न हो गया।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कुमार अपराजित और प्रीतिमती का दाम्पत्य संबंध अनेक पूर्वभवों में भी रह चुका था और अपने नौवें (आगामी) भव में भी जब अपराजित कुमार भगवान अरिष्टनेमि के रूप में जन्मा तो उनका स्नेह-सम्बन्ध किसी रूप में राजीमती के स्वरूप में प्रीतिमती से रहा।
निदान, परोपकार अभियान पर निकले कुमार अपराजित अपनी राजधानी लौट आए। बुद्धि और बल का अद्वितीय कौशल जो कुमार ने अपने इस प्रवास में दिखाया, उससे राज्य भर में हर्ष और कुमार के परोपकारों के कारण गर्व का भाव व्याप्त हो गया। पुत्र-वियोग में माता-पिता के दुखित हृदय आनंदित हो उठे। महाराज हरिनंदी अब वृद्ध भी हो चुके थे। उन्होंने कुमार का राज्याभिषेक कर सत्तादि उन्हें सौंपकर आत्म-कल्याणार्थ का मार्ग अपना लिया।
महाराज होकर अपराजित अपरिमित सुखों एवं वैभव के उपभोगाधिकारी तो हो गए थे, किन्तु किसी भी प्रकार उनका मन सांसारिक विषयों में नहीं लग पाया। वे उदासीन रहने
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