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________________ भगवान अरिष्टनेमि 107 सारी कथा सुनाकर युवक घोर पश्चात्ताप प्रकट करने लगा और कुमार से उनका परिचय पूछने लगा। यह ज्ञात होने पर कि यह राजकुमार अपराजित हैं-वह बड़ प्रसन्न हुआ। बोला-कैसा सुन्दर सुयोग है ? कुमार! अब सँभालिए आप अपनी प्रियतमा को। मेरा उद्धार कर आपने मुझे जिस उपकार-भार से दबा दिया है वह मुझ पर सदा ही बना रहेगा। इसी समय रत्नमाला के पिता भी अपनी पुत्री की खोज में उधर आ पहुँचे। अपनी पुत्री को सुरिक्षत देखकर उनके हर्ष का पारावार न रहा और यह जानकर तो उनका हृदय मानो प्रसन्नता के झुले पर ही झूलने लग गया कि घोर विपत्ति से उनकी पुत्री का उद्धार करने वाले ये कुमार अपराजित ही हैं। और तब विद्याधर राजा ने आते ही अपनी पुत्री के अधरों पर दबी- दबी मुस्कान, मुखमण्डल पर हल्की अरुणिमा और पलकों की विनम्रता देखी। वे उसका सारा रहस्य समझ गए। वे कुमार को राजभवन ले गए और उनका विवाह रत्नमाला से कर दिया। उल्लेखनीय है कि स्वस्थ होने के बाद प्रसन्नतापूर्वक उस विद्याधर युवक ने कुमार को एक दिव्य मणि, एक दिव्य जड़ी और एक रूप परिवर्तनकारी गुटिका उपहार स्वरूप भेंट की। ___ इस घटना के कुछ काल अनन्तर विचारशील कुमार और उनका मित्र दोनों ही श्रीमन्दिरपुर राज्य में पहुँचे। वहाँ की प्रजा पर घोर उदासी और एक अमिट दुःख की छाया देखकर कुमार दुःखित हुए। प्रजा को दु:ख-मुक्त करने की लालसा उनके पर-दुःखकातर मन में अंगड़ाइयाँ लेने लगीं। उन्होंने पता लगाया कि इस घोर शोक का कारण क्या है। ज्ञात हुआ कि वहाँ के राजा किसी भयंकर रोग से पीड़ित हैं। उस रोग का कोई उपचार नहीं हो पा रहा है। कुमार अपराजित ने विद्याधर युवक द्वारा भेंट की गयी मणि और जड़ी के प्रयोग से राजा को सर्वथा स्वस्थ कर दिया। सारे राज्य में हर्ष का ज्वार-सा उठ आया। राजा ने अपनी राजकुमारी रंभा का विवाह कुमार अपराजित के साथ कर दिया। इस प्रकार आभार व्यक्त किया। पर्यटन व्यस्त राजकुमार और मित्र विमल चलते-चलते एक बार एक नगर में पहुँचे, जहाँ एक सर्वज्ञ केवली मुनि का प्रवचन हो रहा था। प्रवचन सुनकर कुमार ने विरक्ति की महिमा को गम्भीरता से अनुभव किया। उन्होंने मुनिराज के समक्ष अपनी सहज जिज्ञासा प्रस्तुत की कि क्या हम भी कभी विरक्त हो, संयम स्वीकार कर सकेंगे? मुनि ने भविष्यवाणी की कि राजकुमार तुम 22वें तीर्थंकर होंगे और तुम्हारा मित्र विमल प्रथम गणधर बनेगा। इन वचनों से कुमार को आत्मतोष हुआ और वे अपने अभियान पर और आगे अग्रसर हो गए। कुछ कालोपरान्त कुमार जयानन्द नगर में पहुंचे। यहाँ की राजकुमारी थी प्रतिमती जो रूप के लिए जितनी ख्यातनामा थी उससे भी बढ़कर अपने बुद्धि-कौशल के लिए थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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