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चौबीस तीर्थंकर
और उस स्थान से दूर प्रवास करते हुए केवली भगवान के समक्ष यह समस्या प्रस्तुत की। उत्तर में भगवान अरिष्टनेमि के अवतरण का संकेत उन्हें मिला। मुनिराज ने विस्तारपूर्वक स्वप्न के उस अंश की व्याख्या करते हुए कहा कि राजन्! तुम्हारा यह पुत्र एक के पश्चात एक भव पार करता हुआ नौवें भव में तीर्थंकर बनेगा।
यही यथार्थ में घटित भी हुआ। इन्हीं माता-पिता के पुत्र रूप में बार-बार धनकुमार ने जन्म लिया। माता-पिता और पुत्र-तीनों के भव परिवर्तित होते रहे और अपने अन्तिम भव में धनकुमार का जीव 22वें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि के रूप में अवतरित हुआ।
भगवान पर अपने पूर्वजन्मों के सुसंस्कारों का अच्छा प्रभाव था। उसी के बल पर प्रभु करुणावतार कहलाते हैं। उउदाहरण के लिए उनके पूर्वभवों में ऐसे एक भव का परिचय दिया जा सकता है जब धनकुमार का जीव (जो आगे चलकर अन्तिम भव में अरिष्टनेमि के रूप में अवतरित हुआ था) अपराजित कुमार के रूप में जन्मा था।
युवराज शौर्य और शक्ति में जितने महान थे उतने ही करुणा और सहानुभूति की भावनाओं से भी परिपूर्ण सुहृदयी थे। अपना समग्र जीवन ही उन्होंने सेवा के महान् व्रत का पालन करने में लगा दिया था। वे विचरणशील ही रहते और जहाँ कहीं कोई सहायता का पात्र उन्हें मिलता त्वरा के साथ वे उसकी सेवा में जुट जाया करते थे।
दीन-दुखियों को आश्रय देना, उनकी रक्षा करना-कुमार अपराजित का स्वभाव ही बन गया था। एक बार का प्रसंग है-कुमार अपने एक मित्र के साथ वन-भ्रमण को गए हुए थे। अश्व की पीठ पर आरूढ़ दोनों मित्रों ने जब खूब भ्रमण कर लिया, तो तृषा शान्त करने के लिए एक शीतल जल-स्रोत पर पहुँचे। कुमार जल से अपनी तृषा बुझाने ही वाले थे कि सहसा कोई आर्त व्यक्ति अतिशय दीनावस्था में आकर उनके चरणों पर गिर पड़ा। वह अत्यन्त आतंकित था, मृत्यु के भय से काँप रहा था। उसने दीन वाणी में राजकुमार से अपने प्राणों की रक्षा करने की प्रार्थना की। घोर विपत्ति में ग्रस्त जानकर कुमार ने उसे अपनी शरण प्रदान की और अभयदान किया। उसे धैर्य बँधाया। इसी समय उसी दिशा से सशस्त्र भीड़ आ गयी। जो उस व्यक्ति को ललकार रही थी।
कुछ ही पलों मेंजब भीड़ समीप आ गयी तो कुमार को ज्ञात हुआ कि ये लोग समीपस्थ राज्य के कर्मचारी हैं। इन लोगों ने कुमार से कहा कि इस व्यक्ति को हमें सौंप दो। यह घोर अपराधी है। चोरी, डकैती, हत्या आदि के जघन्य अपराध इसने किए हैं हमारा राज्य इसे नियमानुसार दण्डित करेगा।
कुमार वास्तव में अब एक गम्भीर समस्या से ग्रस्त हो गए थे। उस व्यक्ति को शरणदान देने के पूर्व ही कुमार के मित्र ने उन्हें सतर्क किया था कि इसे बिना समझे-बूझे शरण देना अनुपयुक्त होगा। कौन जाने यह दुराचारी अथवा घोर अपराधी हो। किन्तु कुमार ने तो उसकी दयनीय दशा देख ली थी, जो उसे शरण में ले लेने का निर्णय करने के लिए पर्याप्त थी। परन्तु जब स्पष्ट हो गया कि शरण में लिया गया व्यक्ति अनाचारी और दुष्कर्मी
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