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________________ 22 भगवान अरिष्टनेमि { भगवान नेमिनाथ } ( चिन्ह - शंख) भयो, तुम विषय - सेवन छोड़कर उन अरिष्टनेमिनाथ को भजो, जिनके अन्तराय रूपी कर्म ही नष्ट हो गए हैं, उन्हीं को प्रणाम करो । भगवान अरिष्टनेमि का तीर्थंकर - परम्परा में 22वाँ स्थान है। करुणावतार भगवान परदुःख - निवारण हेतु सर्वस्व न्योछावर कर देने वालों में अग्रभण्य थे। शरणागत-वत्सलता, परहित - अर्पणता और करुणा की सद्प्रवृत्तियाँ प्रभु के चरित्र में जन्म-जन्मान्तर से विकसित होती चली आयी थीं। भगवान के लिए 'अरिष्टनेमि' और 'नेमिनाथ' दोनों ही नाम प्रचलित हैं। पूर्वजन्म - वृत्तान्त भगवान अरिष्टनेमि के पूर्वभवों की कथा बड़ी ही विचित्र है। अचलपुर नगर के राजा विक्रमधन की भार्या धारिणी ने एक रात्रि को स्वप्न में फलों से लदा एक आम्रवृक्ष देखा । उस वृक्ष के लिए स्वप्न में ही एक पुरुष ने कहा कि यह वृक्ष भिन्न-भिन्न स्थानों पर नौ बार स्थापित होगा। स्वप्न - फलदर्शक सामुद्रिकों से यह तो ज्ञात हो गया कि रानी किसी महापुरुष की जननी होगी, किन्तु नौ स्थानों पर आभ्रतरु के स्थापित होने का क्या फल है ? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया। घोषित परिणाम सत्य सिद्ध हुआ और यथासमय रानी ने एक तेजवान पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम धनकुमार रखा गया । सिंहराजा की राजकन्या धनवती के साथ राजकुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। Jain Education International वन-विहार के समय एक बार युवराज धनकुमार ने तत्कालीन ख्यातिप्राप्त चतुर्विध ज्ञानी वसुन्धर मुनि को देशना देते हुए देखा और उत्सुकतावश वह भी उस सभा में सम्मिलित हो गया। संयोग से महाराजा विक्रमधन (पिता) भी देशना - श्रवणार्थ वहाँ आ गए। महाराजा ने मुनिराज के समक्ष अपनी पत्नी द्वारा देखे गए स्वप्न की चर्चा की और अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने उस अनुत्तरित प्रश्न को हल करने का निवेदन किया कि वृक्ष के नौबार स्थापित होने का आशय क्या है ? वसुन्धर मुनि ध्यानस्थ हो गए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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