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चौबीस तीर्थंकर
भगवान का साधक जीवन दीर्घ नहीं रहा। उग्र तपश्चर्याओं, दृढ़ साधनाओं के बल पर उन्हें मात्र 9 माह की अवधि में ही केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी। इस सारी अवधि में वे छद्मस्थरूप में जनपद में विचरण करते रहे। अनेकानेक उपसर्ग और परीषहों को धैर्य
और समभाव के साथ झेलते रहे, अपनी विभिन्न साधनाओं को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते रहे। प्रभु अन्तत: दीक्षास्थल (सहस्राभ्रवन) पर लौट आए। मोरसली वृक्ष के नीचे उन्होंने छट्ट भक्त तप किया और ध्यानावस्थित हो गए। शुक्लध्याल के चरम चरण में पहुँच कर प्रभु ने समस्त घातिककर्मों को क्षीण कर दिया और केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर अरिहंत पद को उन्होंने विभूषित किया। वह पवित्र तिथि मृगशिर शुक्ला एकादशी थी। __भगवान का दिव्य समवसरण रचा गया। प्रथम धर्मदेशना का लाभ लेने को असंख्य देवासुर-मानव एकत्रित हुए। अपनी देशना में उन्होंने 'आगारधर्म' और 'अनगारधर्म' की मर्मस्पर्शी व्याख्या की। असंख्य जन प्रतिबुद्ध हुए। हजारों नर-नारियों ने अनगारधर्म स्वीकार करते हुए संयम ग्रहण किया। लाखों ने 'आगारधर्म' अर्थात् 'श्रावकधर्म' अंगीकार किया। भगवान चतुर्विध संघस्थापित कर भाव तीर्थंकर कहलाए। परिनिर्वाण
लगभग ढाई हजार वर्ष तक केवली भगवान नमिनाथ ने जनपद में विचरण करते हुए अपनी प्रेरक शिक्षाओं द्वारा असंख्य भव्यों का कल्याण किया। अन्तत: अपना निर्वाण-समय आया अनुभव कर वे सम्मेत शिखर पधारे, जहाँ एक मास के अनशन व्रत द्वारा अयोगी और शैलेशी अवस्था प्राप्त कर ली। इस प्रकार भगवान ने सिद्ध, बुद्ध और मुक्त दशा में निर्वाण पद को प्राप्त किया। भगवान की निर्वाण तिथि वैशाख कृष्णा दशमी थी, वह शुभ बेला अश्विनी नक्षत्र की थी। निर्वाण-प्राप्ति के समय भगवान नमिनाथ की वय 10 हजार वर्ष की थी। वे अपने पीछे विशाल धर्म-परिवार छोड़कर मोक्ष पधारे थे। धर्म परिवार
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गणधर केवली मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रियलब्धिकारी वादी
1,600 1,208 1,600
450 5,000
1,000 20,000
41,000 1,70,000 3,48,000
साधु
साध्वी श्रावक श्राविका
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