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________________ भगवान नमिनाथ 101 श्रावण कृष्णा अष्टमी को अश्वनी नक्षत्र में ही रानी ने नीलकमल की आभा एवं गुणों वाले असाधारण लक्षणों से युक्त पुत्र को जन्म दिया। इन्द्र सहित देवगणों ने सुमेरु पर्वत पर भगवान का जन्म-कल्याण महोत्सव मनाया। समस्त प्रजा ने अत्यधिक हर्ष अनुभव किया और राज्य में कई दिनों तक उत्सव मनाए जाते रहे। नामकरण भगवान जब गर्भ में थे उसी समय शत्रुओं ने मिथिलापुरी को घेर लिया था। राज्य पर बाह्य संकट छा गया था। माता वप्रादेवी ने राजभवन के ऊँचे स्थल पर जाकर जो चहुँ ओर एक शीतल दृष्टि का निक्षेप किया तो स्वत: ही सारी शत्रु सेनाएँ नम्र होकर झुक गयीं। अत: राजकुमार का ना 'नमिनाथ' रखा गया। गृहस्थ-जीवन राज-परिवार के सुखद वातावरण में शिशु नमिकुमार धीरे-धीरे विकसित होने लगे। यथासमय यौवन के क्षेत्र में उन्होंने पदार्पण किया। रूप, आकर्षण, तेज, शक्ति, शौर्य आदि पुरुषोचित अनेक गुणों के योग से उनका भव्य व्यक्तित्व निर्मित हुआ था। महाराजा विजयसेन ने राजकुमार का अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह कराया। नमिकुमार पत्नियों के साथ सामान्य जीवनयापन करने लगे और अन्त में महाराजा विजयसेन इन्हें राज्यादि सर्वस्व सौंपकर विरक्त हो गए-उन्होंने संयम स्वीकार कर लिया। महाराजा नमिनाथ मिथिलाधिपति हो गए थे। इस रूप में भी उन्होंने स्वयं को अतियोग्य एवं कौशल-सम्पन्न सिद्ध किया। अपनी प्रजा का पालन वे बड़े स्नेह के साथ किया करते थे। उनका ऐसा सुखद शासनकाल 5 हजार वर्ष तक चलता रहा। आत्म-कल्याण की दिशा में सतत् रूप से चिन्तन करते रहना उनकी स्थायी प्रवृत्ति बन गयी थी। वास्तविकता तो यह थी कि पारिवारिक जीवन और शासक-जीवन उन्होंने सर्वथा निर्लिप्त के साथ ही बिताया था। उनका साध इन विषयों में नहीं थी। दीक्षा-ग्रहण : केवलज्ञान उन्होंने आत्म-कल्याण के लिए सचेष्ट हो जाने व संयम स्वीकार करने के लिए कामना व्यक्त की। उसी समय लोकान्तिक देवों ने भी भगवान से धर्मतीर्थ-प्रवर्तन हेतु विनय की। इससे विरक्ति का भाव और अधिक उद्दीप्त हो उठा। महाराजा नमिनाथ अपने पुत्र सुप्रभ को समस्त अधिकार व सम्पत्ति सौंपकर वर्षीदान करने लगे। सतत् रूप से दान की एक वर्ष की अवधि-समाप्ति पर भगवान सहस्राभ्रवन में पधारे। आषाढ़ कृष्णा नवमी को भगवान ने वहाँ एक हजार राजपुत्रों सहित दीक्षा ग्रहण कर ली। मिथिला से प्रस्थान कर अगले ही दिन भगवान वीरपुर पहुँचे जहाँ राजा दत्तस के यहाँ प्रथम पारणा हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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