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भगवान मल्लिनाथ
वे समझ नहीं पा रहे थे कि ये दो-दो मल्ली कुमारीयाँ कैसे आ गयीं। रहस्य उन्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। वे इस विचित्र परिस्थिति में डूबते-उतराते ही जा रहे थे कि भगवान मल्ली ने स्वर्ण प्रतिमा का कमलाकार किरीट हटा दिया। मोहनगृह का सुरम्य और सरस वातावरण क्षण मात्र में ही भयंकर दुर्गन्ध के रूप में परिवर्तित हो गया।
प्रतिमा के कमाल का छिद्र ज्यों ही अनावृत्त हुआ, उसके उदरस्थ अन्न की सड़ांध सभी कक्षों में फैल गयी। तीव्र दुर्गन्ध के मारे छहों राजाओ का बुरा हाल हो गया। उनका जी मिचलाने लगा और व्याकुल होकर त्राहि-त्राहि करने लगे। उन्होंने प्रतिमा की ओर से मुँह मोड़ लिया।
मल्ली ने उन्हें सम्बोधित कर प्रश्न किया कि 'मेरे सौन्दर्य पर आसक्त थे आप लोग तो, फिर सहसा मुझसे विमुख क्यों हो गए?'
राजाओं ने एक स्वर में उत्तर दिया कि तुम्हारा दर्शन तो मनोमुग्धकारी है, अपार आनंद उपजाता है। लेकिन नासिका का अनुभव अत्यंत वीभत्स है। यह भंयकर दुर्गन्ध सहन नहीं होती। हमें कोई मार्ग नहीं मिल पा रहा है। कोई हमें इस कक्ष से बाहर निकाले तो इस यातना से मुक्ति मिले। हमारा दम घुट रहा है। तभी भगवान ने उन्हें बोध दिया। इस आकर्षक, लावण्ययुक्त स्वर्ण प्रतिमा में से ही असह्य दुर्गन्ध निकल रही है। इसके उदर में प्रतिदिन एक-एक ग्रास अन्न पहुँचा है, जो विकृत होकर तुम्हारे मन में ग्लानि उत्पन्न कर रहा है। मेरा यह कंचन-सा शरीर भी रक्त-मज्जादि सप्त धातुओं का संगठन मात्र है, जो तुम्हारे लिए मोह और आसक्ति का कारण बना हुआ है। किन्तु यह बाह्य विशेषताएँ असार है, अवास्तविक हैं। माता-पिता के रज-वीर्य के संयोग का परिणाम यह शरीर भीतर से मलिन है, अशुचि रूप है। पवित्र अन्न भी इसी शरीर के सम्पर्क में आकर विकारयुक्त और घृणोत्पादक हो जाता है, मल में परिवर्तित हो जाता है। ऐसे शरीर की मोहिनी पर जोकि सर्वथा मिथ्या है, प्रवंचना है-आसक्त होना क्या विवेक का परिचायक है? अपने पूर्वभव का ध्यान कर आप आत्म-कल्याण में प्रवृत्त क्यों नहीं होते?
विषयाधीन इन राजाओं के ज्ञान-नेत्र खुल गए। उन्होंने भगवान की वाणी से प्रभाव ग्रहण किया। सभी कक्षों के द्वार उन्मुक्त कर दिए गए और राजागण बाहर निकले। अपने अज्ञान और उसके वशीभूत होकर किए गए कर्मों पर वे लज्जित होने लगे। उन्होंने मल्लीकुमारी का उपकार स्वीकार किया कि उनकी नरक की घोर यातनाओं से रक्षा हो गयी। उन्होंने मल्लीकुमारी से कल्याणकारी मार्ग बताने का निवेदन किया।
आश्वासन देकर प्रभु उनके उद्विग्न चित्तों को शांत किया और कहा कि मैं तो आत्म-कल्याण के प्रयोजन से चारित्र स्वीकार करना चाहता हूँ। तुम मेरे पूर्वभव के मित्र और सहकर्मी रहे हो। यदि चाहो तो तुम भी विरक्त होकर इस मार्ग का अनुसरण करो। इस उपकार-भार से नमित राजाओं ने आत्म-कल्याण का अमोघ साधन मानकर चारित्र स्वीकार करने की सहमति दी।
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