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________________ 94 चौबीस तीर्थंकर __ भगवान चारित्रधर्म स्वीकार कर तीर्थंकरत्व की ओर अग्रसर होने का संकल्प कर ही चुके थे। इधर लोकान्तिक देवों ने भगवान से प्रार्थना भी की, जिससे भगवान ने अपना विचार और भी प्रबलतर कर लिया। दीक्षा-केवलज्ञान अब भगवान वर्षीदान में प्रवृत्त हुए और मुक्तहस्ततापूर्वक दान करने लगे। इसके सम्पन्न हो जाने पर इन्द्रादि देवो ने प्रभु का दीक्षाभिषेक किया और तत्पश्चात भगवान ने गृह-त्याग कर दिया। निष्क्रमण कर वे जयन्त नामक शिविका में सहस्राभ्रवन पधारे। मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को भगवान मल्ली ने 300 स्त्रियों और 1000 पुरुषों के साथ संयम स्वीकार कर लिया। दीक्षा-ग्रहण के तुरन्त पश्चात् उन्हें मन:पर्यवज्ञान की उपलब्धि हो गयी थी। प्रभु का प्रथम पारणा राजा विश्वेसन के यहाँ हुआ। दीक्षा लेते ही उसी दिन मन:पर्यावज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भगवती मल्ली उसी सहस्रभवन में अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानलीन हो गयीं। विशिष्ट उल्लेख्य बिन्दु यह है कि भगवान दीक्षा के दिन ही केवली भी बन गए थे। शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्याओं के द्वारा अपूर्वकरण में उन्होंने प्रवेश कर लिया, जिसमें ज्ञानावरण आदि का क्षय कर देने की क्षमता होती है। अत्यन्त त्वरा के साथ आठवें, नौवें, दसवें और बारहवें गुणस्थान को पार उन्होंने केवलज्ञान-केवलदर्शन का लाभ प्राप्त कर लिया। पूर्वकथनानुसार यह तिथि ही मृगशिर शुक्ला एकादशी की तिथि थी। केवल ज्ञान में ही आपका प्रथम-पारणा सम्पन्न हुआ था। प्रथम देशना केवली भगवान मल्लीनाथ के समवसरण की रचना हुई। भगवान ने अपनी प्रथम धर्मदेशना में ही अनेक नर-नारियों को प्रेरित कर आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ कर दिया। देशना द्वारा प्रभावित होकर भगवान के माता-पिता महाराज कुंभ और रानी प्रभवती देवी ने श्रावक धर्म स्वीकार किया और विवाहाभिलाषी जितशत्रु आदि छहों राजाओं ने मुनि-दीक्षा ग्रहण की। आपने चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना कर भाव तीर्थकर की गरिमा प्राप्त की। 55 हजार वर्षों तक विचरणशील रहकर भगवान ने धर्म शिक्षा का प्रचार किया और असंख्य जनों को मोक्ष-प्राप्ति की समर्थता उपलब्ध करायी। परिनिर्वाण ___ अपने अन्त समय का आभास पाकर भगवान ने संथारा लिया और चेत्र शुक्ला चतुर्थी की अर्धरात्रि में भरणी नक्षत्र के शुभ योग में, चार अघातिकर्मों का क्षय किया एव निर्वाणपद प्राप्त कर लिया। वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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