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भगवान मल्लिनाथ
(चिन्ह-कलश)
जिनके चरण कमल शांति रूपी वृक्ष को सींचने में अमृत के समान हैं, जिनका शरीर प्रियंगुलता के समान सुन्दर है और जो कामदेव रूपी मधु दैत्य के लिए कृष्ण के समान वीर हैं-ऐसे हे मल्लिनाथप्रभु! आपके चरण-कमलों की सेवा मुझे सदा सर्वदा प्राप्त हो।
भगवान श्री मल्लिनाथ का तीर्थंकरों की परम्परा में 19वां स्थान है। तीर्थंकर प्रायः पुरुष रूप में ही अवतरित होते हैं और अपवादस्वरूप स्त्रीरूप में उनका अवतीर्ण होना एक आश्चर्य माना जाता है। अवसर्पिणी काल में 19वें तीर्थंकर का स्त्रीरूप में जन्म लेना भी इस काल के 10 आश्चर्यों में से एक है। इनके स्त्रीरूप में अवतरण का विषय वैसे विवाद का विषय भी है। दिगम्बर परम्परा इन्हें स्त्री स्वीकार नहीं करती।
पूर्व-जन्म
जम्बूद्वीप के पश्चियम महाविदेह के सलिलावती विजय में वीतशोका नगरी धन-धान्य से परिपूर्ण थी। इस सुन्दर राज्य के अधिपति किसी समय महाराजा महाबल थे। ये अत्यन्त योग्य, प्रतापी और धर्माचारी शासक थे। कमलश्री इनकी रानी का नाम था और उससे उन्हें बलभद्र नामक पुत्र की प्राप्ति हुई थी। वैसे महाराजा महाबल ने 500 नृपकन्याओं के साथ अपना विवाह किया था तथापि उनके मन में संसार के प्रति सहज अनासक्ति का भाव था,अत: बलभद्र के युवा हो जाने पर उसे सिंहासनारूढ़ कर महाराजा महाबल ने धर्म-सेवा व आत्म-कल्याण का निश्चय कर लिया। इनके सुख-दुःख के साथी बाल्यकाल के 6 मित्र थे। इन मित्रों ने भी महाराजा का अनुसरण किया। सांसारिक संतापों से मुक्ति के अभिलाषी महाबल ने जब संयम व्रत ग्रहण करने का निश्चय किया, तो उनके इन मित्रों ने न केवल इस विचार का समर्थन किया, अपितु इस नवीन मार्ग पर राजा के साथी बने रहने का अपना विचार व्यक्त किया अत: इन सातों ने वरधर्म मुनि के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा प्राप्त कर सातों मुनियों ने यह निश्चय किया कि हम सब एक ही प्रकार की और एक ही समान तपस्या करेंगे। कुछ काल तक तो उनका यह निश्चय क्रियान्वित होता रहा,
* 1. धरण, 2. पूरण, 3. वसु, 4. अचल, 5. वैश्रवण, 6. अभिचन्द्र।
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