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________________ 84 बीज ही अंकुरित होकर दुःख की लता को साकार रूप देते हैं। यह लता अबोध रूप से फैलती हैं एवं भय, संताप आदि फलों को ही उत्पन्न करती है। अतः इन कष्टों से मुक्त होने के लिए इनके बीज को ही नष्ट करना पड़ेगा। अज्ञान, मोह आदि को जो नष्ट करे देता है वह दुःखों के जाल से मुक्त हो जाता है। असंख्य भव्यजन इस देशना से प्रबोधित हुए और उन्होंने दीक्षा को अंगीकार कर लिया। प्रभु चतुर्विध संघ स्थापित कर भाव तीर्थंकर कहलाए । परिनिर्वाण केवली प्रभु ने विचरणशील रहकर अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया और असंख्य नर-नारियों को उस प्रकाश में अपना उचित मार्ग खोजने में सफलता मिलती रही। व्यापक लोक-मंगल करते-करते जब प्रभु ने अपना निर्वाण काल समीप ही अनुभव किया, तो वे समेत शिखर पहुँचे। तब तक केवलज्ञान प्राप्ति को 23 हजार 7 सौ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। भगवान ने एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन किया। वैशाख कृष्णा प्रतिपदा को कृत्तिका नक्षत्र में भगवान कुन्थुनाथ ने सम्पूर्ण कर्मों का विनाश कर दिया और निर्वाण पद प्राप्त कर लिया। अब वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए थे। धर्म परिवार गणधर केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रियलब्धिकारी वादी साधु साध्वी चौबीस तीर्थंकर श्रावक श्राविका Jain Education International For Private & Personal Use Only 37 3,200 2,500 3,340 670 5,100 2,000 60,000 60,600 1,72,000 3,81,000 www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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