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भगवान अरहनाथ ( चिन्ह - नन्दावर्त स्वस्तिक)
जिनके चरण तल में देवश्रेणी लौटती है - ऐसे हे सुदर्शन सुत अरहनाथ स्वामी ! आपके चरण-कमलों की सेवा, शान्त न होने वाले भव-रोग की औषधि समान, बड़ी ही उत्तम है। अतः मैं भी आपकी सेवा को अंगीकार करता हूँ। आपकी आज्ञा का पालन करना ही आपकी सच्ची सेवा है।
पूर्व - जन्म
भगवान अरहनाथ स्वामी अपने पूर्व भवों में बड़े पुण्यात्मा जीव रहे। वे त्याग, तपस्या, क्षमा, विनय और भक्ति को ही सर्वस्व मानते रहे। इन्हीं सुसंस्कारों का परिणाम तीर्थंकरत्व की उपलब्धि के रूप में प्रकट हुआ था। इस भव से ठीक पूर्व के भव की चर्चा यहाँ प्रासंगिक है।
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महाविदेह क्षेत्र के वत्स नामक विजय में एक सुन्दर नगरी थी - सुसीमा । एक समय यहाँ धनपति नाम के राजा राज्य करते थे। महाराजा धनपति के शासन की विशेषता यह थी, कि वह प्रेमपूर्वक चलाया जाता था। महाराज ने, जो दया, क्षमा और प्रेम के जैसे साक्षात् अवतार ही थे, अपनी प्रजा को न्याय, धर्म, अनुशासन, पारस्परिक स्नेह, बन्धुता, सत्याचरण आदि सद्गुणों के व्यवहार के लिए ऐसा प्रेरित किया था कि उनके राज्य में अपराध - वृत्ति का समूल विनाश हो गया था। परिणामतः उनके शासन काल में दण्ड विधान प्रयुक्त ही नहीं हो पाया। पिता के समान राजा अपनी प्रजा का पालन किया करते थे और उनके स्नेह से अभिभूत जनता भी अपने महाराजा का अतिशय आदर करती एवं स्वेच्छापूर्वक उनकी नीतियों का अनुसरण करती थी। धर्म और न्याय के साथ शासन करते हुए महाराजा धनपति को जब पर्याप्त समय हो गया और अवस्था ढलने लगी तो उनके मन में पहले से स्थिर हो रही अनासक्ति का भाव प्रबल होने लगा। एक दिन अपना राज्य उत्तराधिकारी को सौंप कर सब कुछ त्याग कर वे विरक्त हो गए। संवर मुनि के पास उन्होंने दीक्षा ले ली और तप साधना करते हुए वे विहार - रत हो गए। अपनी उच्चकोटि की साधना द्वारा उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया तथा समाधि सहित काल कर वे ग्रैवेयक में महर्द्धिक देव बने । यही जीव आगे चलकर भगवान अरहनाथ के रूप में अवतरित हुआ ।
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