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________________ भगवान श्री कुन्थुनाथ 83 दीक्षा-ग्रहण व केवलज्ञान इस प्रकार सुदीर्घकाल तक अपार यश और वैभव का उपभोग करते हुए महाराज कुन्थु ने इतिहास में अपना अमर स्थान बना लिया था। उनके जीवन में तब वह क्षण भी आया जब वे आत्मोन्मुखी हो गए। अब उनके भोगकर्म क्षीण होने को आए थे और उन्होंने दीक्षा ग्रहण करने की कामना व्यक्त की। यह उनके विरक्त हो जाने का उपयुक्त समय था-इसकी पुष्टि इस तथ्य से हो गयी कि ब्रह्मलोक से लोकान्तिक देवों ने आकर उनसे धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने की प्रार्थना की। उत्तराधिकारी को राज्य सौंपकर वे वर्षीदान में प्रवृत्त हो गए और 1 वर्ष तक अपार दान देते रहे। वे प्रतिदिन 1 करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्रा दान करते थे। उनके दान की अपारता का उपमान मेघ वृष्टि को माना जाता था। एक और भी विशेषता उनके दान के विषय में विख्यात है। याचक दान में प्राप्त धन को जिस धनराशि में सम्मिलित कर लेता था, वह धनराशि अक्षय हो आती थी, कभी समाप्त ही नही होती थी। वीदान सम्पन्न हो जाने पर भगवान का निष्क्रमणोत्सव मनाया गया। इन्द्रादि देव इसमें सम्मिलित हुए और भगवान कुन्थुनाथ ने दीक्षाभिषेक के पश्चात् गृह- त्याग कर निष्क्रमण किया। विजया नामक शिविका में बैठकर वे सहस्राभ्रवन में पहुँचे जहाँ उन्होंने अपने मूल्यवान वस्त्रालंकारों को त्याग दिया। वैशाख कृष्णा पंचमी को कृत्तिका-नक्षत्र के शुभयोग में पंचमुष्टि लोचकर षष्ट भक्त तप के साथ भगवान ने चारित्र स्वीकार लिया। इसी समय भगवान को मनःपर्यवज्ञान का लाभ हुआ था। दीक्षा के आगामी दिन चक्रपुर नगर के नरेश व्याघ्रसिंह के यहाँ परमान्न से प्रभु का प्रथम पारणा हुआ। पारणा के पश्चात् भगवान कुन्थुनाथ स्वामी अपने अजस्र विहार पर निकले और 16 मास तक छद्मस्थावस्था में उन्होंने अनेक परीषह झेलते हुए विचरण किया तथा कठोर तप-साधना की। अन्तत: प्रभु पुन: हस्तिनापुर के उसी सहस्राभ्रवन में पधारे जहाँ उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। तिलक वृक्ष के लते प्रभु ने षष्ठभक्त तप के साथ कायोत्सर्ग किया। शुक्ल्ध्यान में लीन होकर उन्होंने क्षपक श्रेणी में आरोहण किया और घातिक कर्मों को क्षीण करने में सफल हो गए। अब भगवान केवलज्ञान के स्वामी हो गए थे। इस महान् उपलब्धि की शुभ बेला थी-चेत्र शुक्ला तृतीया की कृतिका नक्षत्र की घड़ी। प्रथम धर्म-देशना प्रभु की इस उपलब्धि से त्रैलोक्यव्यापी प्रकाश उत्पन्न हुआ और केवलज्ञान महोत्सव मनाया गया। सहस्राभ्रवन में ही प्रभु का समवसरण भी रचा गया और जन-जन के हितार्थ भगवान ने अपनी प्रथम धर्मदेशना दी। केवली भगवान कुन्थुनाथ ने श्रुतधर्म व चारित्रधर्म की व्याख्या करते हुए इनके महत्त्व का प्रतिपादन किया। विशेषत: सांसारिकों के दुःख पर आत्म-चिन्तन का सार प्रस्तुत करते हुए भगवान ने बोध कराया कि अज्ञान और मोह के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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