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चौबीस तीर्थंकर
दिन और कृत्तिका नक्षत्र का शुभयोग था। उसी रात्रि में रानी ने तीर्थंकर के गर्भागमन का द्योतन करने वाले 14 महान् शुभ स्वप्नों का दर्शन किया और अपने सौभाग्य पर वह गर्व
और प्रसन्नता का अनुभव करने लगी। प्रफुल्ल-चित्तता के साथ माता ने गर्भ का पालन किया और वैशाख कृष्णा चतुर्दशी को कृत्तिका नक्षत्र में ही उसने एक अनुपम रूपवान और तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया।
कुमार के जन्म पर राज-परिवार और समग्र राज्य में हर्षपूर्वक उत्सव मनाए गए। उत्सवों का यह क्रम 10 दिन तक चलता रहा। कुमार जब गर्भ में थे, तो माता ने कुन्थु नामक रत्न की राशि देखी थी। इसी को नामकरण का आधार मानकर पिता ने कुमार का नाम कुन्थुकुमार रखा।
श्री-समृद्धि से पूर्ण, अत्यन्त सुखद एवं स्नेह से परिपूर्ण वातावरण में कुमार का लालन-पालन हुआ।क्रमश: कुमार शैशव से किशोरावस्था में आए और उसे पार कर उन्होंने यौवन के सरस प्रांगण में प्रवेश किया।
गृहस्थ-जीवन
युवराज कुन्थुनाथ अतिभव्य व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनकी बलिष्ठ देह 35 धनुष ऊँची और समस्त शुभ लक्षणयुक्त थी। वे सौन्दर्य की साकार प्रतिमा से थे। उपयुक्त आयु प्राप्ति पर पिता ने अनिंद्य सुन्दरियों के साथ कुमार का विवाह सम्पन्न कराया। युवराज का दाम्पत्य-जीवन भी बड़ा सुखी था। 24 सहस्र वर्ष की आयु होने पर पिता ने इन्हें राज्यासीन कर दिया। महाराज होकर कुन्थुकुमार ने शासन-कार्य आरम्भ किया। शासक के रूप में उन्होंने स्वयं को सुयोग्य एवं पराक्रमी सिद्ध किया। पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त वैभव एवं राज्य को और अधिक अभिवर्धित एवं विकसित कर वे 'अतिजातपुत्र' की पात्रता के अधिकारी बने। लगभग पौने चौबीस सहस्र वर्ष का उनका शासनकाल व्यतीत हआ था कि उनके शस्त्रागार में 'चक्र रत्न' की उत्पत्ति हुई, जो अन्तरिक्ष में स्थापित हो गया। यह शुभ संकेत पाकर महाराजा कुन्थु ने विजय-अभियान की तैयारी की और इस हेतु प्रयाण किया अपनी शक्ति और साहस के बल पर महाराज ने 6 खण्डों को साधा और अनेक सीमारक्षक देवों पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने अधीन कर लिया। 600 वर्ष तक सतत् रूप से युद्धों में विजय प्राप्त करते हुए वे चक्रवर्ती सम्राट के गौरव से सम्पन्न होकर राजधानी हस्तिनापुर लौटे। महाराज का चक्रवर्ती महोत्सव 12 वर्षों तक मनाया जाता रहा। इस अवधि में प्रजा कर-मुक्त जीवन व्यतीत करती रही थी। सम्राट चौदह रत्नों और नव-निधान के स्वामी हो गए थे। सहस्रों नरेश के वे अधिराज थे। तीर्थंकरों को चक्रवर्ती की गरिमा ऐश्वर्य के लिए प्राप्त नहीं होती-भोगावली कर्म के कारण होती है। अत: इस गौरव के साथ भी वे विरक्त बने रहते हैं। सम्राट कुन्थुनाथ भी इसके अपवाद नहीं थे।
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