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भगवान श्री कुन्थुनाथ
( चिन्ह - छाग )
शान्ति के स्थान और नय रूपी सुन्दर समुद्र में वरुण की शोभा को धारण करने वाले, हे कुन्थुनाथ भगवान ! मुझे मोहरूपी नवीन वैरी समूह का दमन करने के लिए मोक्षमार्ग में पहुँचा दें।
17वें तीर्थंकर भगवान श्री कुन्थुनाथ हुए।
पूर्व - जन्म
प्राचीन काल में पूर्व महाविदेह क्षेत्र में खड्गी नामक राज्य था। चर्चा उस काल की है, जब इस राज्य में महाप्रतापी नरेश सिंहावह का शासन था । महाराजा स्वयं भी धर्माचारी थे और इसी मार्ग पर अपनी प्रजा को अग्रसर करने का पवित्र कर्त्तव्य भी वे पूर्ण रुचि के साथ निभाते थे । पापों के उन्मूलन में सदा सचेष्ट रहने वाले महाराजा सिंहावह वैभव- सिन्धु में विहार काते हुए भी कमलपुष्प की भाँति अलिप्त रहा करते थे। अनासक्ति की भावना के साथ ही राज्य संचालन के दायित्व को पूरा किया करते थे। महाराजा ने यथसमय संयम स्वीकार करने की भावना व्यक्त की और संवराचार्य के पास उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। अपने साधक जीवन में मुनि सिंहावह ने तीव्र साधनाएँ कीं, अर्हद भक्ति आदि बीस स्थानों की आराधना की तथा तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया। समाधि के साथ कालकर मुनि सिंहावह के जीव ने सर्वार्थसिद्धि महाविमान में 33 सागर की आयु वाले अहमिन्द्र के रूप में स्थान पाया।
जन्म - वंश
कुरुक्षेत्र में एक राज्य था - हस्तिनापुर नगर | समृद्धि और सुख - शान्ति के लिए उ काल में यह राज्य अति विख्यात था। सूर्यसम तेजस्वी नरेश शूरसेन वहाँ के शासक थे और उनकी धर्मपत्नी महारानी श्री देवी थीं। ये ही भगवान कुन्थुनाथ के माता-पिता थे ।
जब सर्वार्थसिद्धि विमान में सुखोपभोग की अवधि हुई, तो वहाँ से प्रस्थान कर मुनि सिंहावह के जीव ने महारानी श्रीदेवी के गर्भ में स्थान पाया। वह श्रावण कृष्णा नवमी का
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