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________________ भगवान शान्तिनाथ दिया और एक हजार क्षत्रियों सहित दीक्षा ग्रहण कर ली। वह ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी का शुभ दिवस था। भगवान को तुरन्त ही मनः पय्रवज्ञान का लाभ भी हो गया था मन्दिरपुर - नरेश महाराज सुमित्र के यहाँ आगामी दिवस परमान्न से प्रभु पारणा हुआ । 79 दीक्षित होकर भगवान शान्तिनाथ अब अनेक उपसर्गों और परीषहों को समभाव के साथ झेलते हुए जनपद में विचरते रहे। एक मास तक इस प्रकार विचरणशील रहते हुए भगवान ने अनेक कठोर तप और साधनाएँ कीं । अन्ततः वे हस्तिनापुर के सहस्राभ्रवन में ही पुन: पधारे औरवहाँ नन्दी वृक्षतले वे ध्यानलीन हो गए। शुक्लध्यान की चरम अवस्था में पहुँचकर भगवान ने समस्त घातिककर्मों का क्षय कर दिया और केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। आसन कम्प से इन्द्र को इसकी सूचना हुई और वे अन्य देवताओं सहित केवली भगवान की वन्दना करने को उपस्थित हुए । समवसरण - प्रथम देशना भगवान के विशाल समवसरण की रचना हुई और उनकी प्रथम देशना से लाभान्वित होने के लिए द्वादश परिषदें एकत्रित हुईं। भगवान ने अपनी इस प्रथम धर्मदेशना में मानव-जीवन की महत्ता का प्रतिपादन किया और उपदेश दिया कि मोक्ष- साधन जुटाना 84 लाख योनियों में से केवल मानव योनि का ही प्रधान लक्ष्य है। यह योनि बड़ी दुर्लभ है - इस पाकर भी जो मोक्षार्थ प्रयत्न नहीं करता उस मनुष्य का जीवन सर्वथा अर्थ-रहित है । उसका जीवन ठीक उस प्रकार से व्यर्थ हो जाता है, जैसे बकरी के गले में लटकते हुए स्तन। भगवान ने आत्मा का उत्थान करने वाले कार्यों को ही श्रेयस्कर बताया और सुख - दुख का तात्त्विक विवेचन किया। भगवान ने अज्ञान को दुःख का मूल कारण बताते हुए कहा कि भय और कष्ट इसके प्रतिफल होते हैं। अज्ञान और मोह को जो समूल नष्ट कर देता है वह दुःख से परे होकर चिरशान्ति का लाभ करता है । भगवान की देशना से प्रतिबुद्ध होकर सहस्रों नर-नारियों ने दीक्षा अंगीकार कर ली। हस्तिनापुर - नरेश महाराज चक्रायुध ने भी भगवान से प्रार्थना की कि मुझे दीक्षा प्रदान कीजिए। भगवान ने उन्हें अपनी आत्मा के निर्देश का शीघ्र पालन करने को कहा । महाराजा चक्रध अपने पुत्र कुरुचन्द्र को सिंहासनारूढ़ कर दीक्षित हो गए। इनके साथ ही अन्य 35 राजाओं ने भी दीक्षा अंगीकार की। परिनिर्वाण केवली पर्याय में 25 हजार वर्षों तक भगवान ने जनपद में विचरण करते हुए लाखों नर-नारियों को आत्म-कल्याण का मार्ग बताया और उस पर गतिशील रहने को प्रेरित करते रहे। एक लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण हो जाने पर भगवान अपना अन्त समय समझकर सम्मेत शिखर पर पहुँचे और एक मास का अनशन किया। ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को भरणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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