SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 चौबीस तीर्थंकर लगे। यद्यपि सांसारिक विषयों में कुमार की तनिक भी रुचि न थी, किन्तु भोग-फलदायी कर्मों को नि:शेष भी करना था और माता-पिता के आग्रह का वे अनादर भी नही कर सकते थे; अत: उन्होंने गुणवती रमणियों के साथ विवाह किया तथा सुखी दाम्पत्य-जीवन का उपभोग भी किया। जब युवराज की आयु 25 हजार वर्ष की हुई तो पिता महाराज विश्वसेन ने उन्हें राज्याभिषेक कर समस्त सत्ता का अधिकारी बना दिया और स्वयं विरक्त होकर संयम मार्ग पर आरूढ़ हो गए। महाराज के रूप में शांतिकुमार ने न्यायशीलता, शासन-कौशल और प्रजावत्सलता का परिचय दिया। पराक्रमशीलता में तो राजा शांतिनाथ और भी दो चरण आगे थे। उनके पराक्रम का सभी नरेश लोहा मानते थे। किसी भी राजा का साहस हस्तिनापुर के साथ वैमनस्य रखने का न होता था। __ महाराज शांतिनाथ के शासनकाल के कोई 25 हजार वर्ष व्यतीत हुए होंगे कि उनके शस्त्रागार में चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। यह इस बात का निर्देश था कि अब नरेश को चक्रवर्ती बनने के प्रयास आरम्भ करने हैं। राजा ने चक्ररत्न उत्पत्ति-उत्सव मनाया और चक्र शस्त्रागार से निकल पड़ा। खुले व्योम में जाकर वह पूर्व दिशा में स्थापित हो गया। सदलबल महाराज ने पूर्व में प्रयाण किया। अपनी आसमुद्र विजय यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले राजाओं को अपने अधीनस्थ करते हुए उन्होंने शेष तीनों दिशाओं में भी विजय पताका फहरा दी। तब संधु को लक्ष्य मानकर उनकी सेना अग्रसर हुई। सिंधु देवी ने भी अधीनता स्वीकार की। तदनन्तर उन्होंने वैतादयगिरि को अपने अधीन किया। इस प्रकार 6 खण्ड साधकर महाराज शान्तिनाथ चक्रवर्ती की समस्त ऋद्धियों सहित राजधानी हस्तिनापुर लौट आए। देवों और नरेशों ने सम्राट को चक्रवर्ती पद पर अभिषिक्त किया एवं विराट महोत्सव आयोजित हुआ, जो 12 वर्षों तक चलता रहा। प्रजा इस अवधि में कर और दण्ड से भी मुक्त रही। लगभग 24 सहस्र वर्षों तक सम्राट शान्तिनाथ पद पर विभूषित रहे। दीक्षाग्रहण-केवलज्ञान __ अब महाराज शान्तिनाथ के भोगफलदायी कर्म समाप्त होने आए थे। उनके मन में छिपा विरक्ति का बीज अंकुरित होने लगा और वे संयम स्वीकारने की कामना करने लगे। वे यद्यपि स्वबुद्ध थे, तथापि मर्यादानुसार लोकान्तिक देवों ने आकर भगवान से धर्मतीर्थ के प्रवर्तन की प्रार्थना की। ___ अनासक्त होकर भगवान ने राजपाट अपने पुत्र चक्रायुध को सौंप दिया और स्वयं वर्षीदान में प्रवृत्त हो गए। एक वर्ष तक सतत् रूप से दान करने के पश्चात् भगवान ने गृहत्याग किया। निष्क्रमणोत्सव मनाया गया और देवों ने उनका दीक्षाभिषेक किया। अन्तिम रूप में मूल्यवान राजसी वस्त्रालंकार धारण कर भगवान सर्वार्थशिविका में आरूढ़ होकर सहस्राभ्रवन पधारे। वहाँ ही उन्होंने उन आभूषणों और वस्त्रों का त्याग कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy