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भगवान शान्तिनाथ
शक्ति उन्हें डिगा नहीं सकती। यह प्रशंसा इन्द्राणियों के लिए भला कैसे सहन होती? उन्होंने मेघरथ को तप- भ्रष्ट करने का निश्चय किया और वे स्वयं ही इस लोक में आई और उन अरूिपवतियों के हाव-भाव आंगिक चेष्टाओं, नृत्य-गान आदि अनेक उपायों से मेघरथ को विचलित करने के प्रयास किए। अन्तत: उन्हें अपने प्रयत्नों में विफल ही होना पड़ा। उनका सम्मोह मायाजाल व्यर्थ सिद्ध हुआ।
इस प्रसंग ने मेघरथ के विरक्तिभाव को प्रबलतर कर दिया। सारी घटना सुनकर रानी प्रियमित्रा ने भी संयम स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। घनरथ का संयोग से उसी नगर में आगमन हुआ और मेघरथ ने उनके पास दीक्षाग्रहण करली। मुनि मेघरथ ने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया और शरीर त्याग कर वे सर्वार्थसिद्धि महाविमान में देव बने।
जन्म-वंश
कुरुदेश में हस्तिनापुर नाम का एक नगर था, जहाँ महाराज विश्वसेन शासन करते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम अचिरा देवी था। सर्वार्थसिद्धि विमान में सुखोपभोग की अवधि समाप्त हो जाने पर मेघरथ के जीव ने वहाँ से च्यवन किया और रानी अचिरा देवी के गर्भ में स्थित हुआ। वह शुभ तिथि थी-भाद्रपद कृष्णा सप्तमी और वह श्रेष्ठ बेला थी भरणी नक्षत्र की। रानी ने गर्भ-धारण की रात्रि में ही 14 दिव्य स्वप्न देखे और इसके फल से अवगत होकर कि उसकी कोख से तीर्थंकर का जन्म होगा-वह बड़ी ही उल्लसित हुई।
ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी को भरणी नक्षत्र में ही रानी अचिरा ने एक तेजवान पुत्र को जन्म दिया। बालक कुन्दनवर्णी और 1008 गुणों में सम्पन्न था। भगवान का जन्म होते ही सभी लोकों में तीर्थंकर जन्म-सूचक आलोक फैल गया। इन्द्र, देवों और दिक्कुमारियों ने उत्साह के साथ जन्म-कल्याण महोत्सव मनाया। सारे राज्य भर में प्रसन्नता छा गयी . औरअनेक उत्सवों का आयोजन हुआ।
उस काल में कुरू देश में भयानक महामारी फैली थी। नित्य-प्रति अनेक व्यक्ति रोग के शिकार हो रहे थे। अनेक-अनेक उपचार किए गए, पर महामारी शान्त नहीं हो रही थी। भगवान के गर्भस्थ होते ही उस उपद्रव का वेग कम हुआ। महारानी ने राजभवन के ऊँचे स्थल पर चढ़कर सब ओर दृष्टि डाली। जिस-जिस दिशा में रानी ने दृष्टिपात किया, वहाँवहाँ रोग शांत होता गया और इस प्रकार सारे देश को भयंकर कष्ट से मुक्ति मिल गयी। भगवान के इस प्रभाव को दृष्टिगत रखते हुए उनका नाम शान्तिनाथ रखा गया।
गृहस्थ-जीवन-चक्रवर्ती पद
राजसी वैभव और स्नेहसिक्त वातावरण में कुमार शान्तिनाथ का लालन-पालन होने लगा। अनेक बाल-सुलभ क्रीड़ाएँ करते हुए वे शारीरिक और मानसिक रूप से विकसित होते रहे और युवा होने पर वे क्षत्रियोचित शौर्य, पराक्रम, साहस और शक्ति मूर्त रूप दिखायी देने
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