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चौबीस तीर्थंकर
लिए यह प्रसन्नता का विषय था कि उसकी नश्वर देह किसी के प्राणों की रक्षा के लिए प्रयुक्त हो।
उसी समय एक देव वहाँ पर प्रकट हुआ और दैन्यपूर्वक क्षमा याचना करने लगा। तुरन्त सारा दृश्य ही परिवर्तित हो गया। न तो बाज और न ही कबूतर वहाँ था। राजा भी स्वस्थ-तन हो गया था। उसकी देह से काटा गया माँस भी दृष्टिगोचर न होता था। तब उस देव ने इससारे प्रसंग का रहस्य प्रकट किया
देव ने कहा कि स्वर्ग में देव-सभा मध्य इन्द्र ने आपकी शरणागत वत्सलता और करुणा-भावना की अतिशय प्रशंसा की थी। मैं सहज विश्वासी नहीं हूँ, मैंने देवेन्द्र के कथन में अतिशयोक्ति का अनुभव कर उसमें सन्देह किया। मैं स्वयं आपकी परीक्षा लेकर ही विश्वास करना चाहता था अत: मैं स्वर्ग से चल पड़ा मार्ग में बाज पक्षी मिल गया। मैंने ही उसके शरीर में प्रवेश करके आपकी यह करुणा और धर्मपालन की भावना देखी। जैसा मैंने आपके विषय में सुना था, आज आपको वैसा ही पाया है।
अवधिज्ञान की सहायता से सब कुछ ज्ञात कर महाराज मेघरथ ने बताया कि एक श्रेष्ठी के दो पुत्र व्यवसायार्थ विदेश गए हुए थे। किसी रत्न को लेकर दोनों में कलह हुआ
और वह भीषण संघर्ष में परिवर्तित हो गया जिसमें दोनों ही मारे गए। उस जन्म का वैर होने के कारण आगामी जन्म में अनके जीव कबूतर और बाज के रूप में जन्मे। उस देव के पूर्वभव के विषय में भी महाराज ने बताया कि वह दमतारि नाम का प्रतिवासुदेव था और मैं अपने एक पूर्वभव में अपराजित बलदेव। उस भव में बन्धु दृढ़रथ वासुदेव था। दमतारि की कन्या कनकश्री के लिए उस भव में हम दोनों भाइयें ने दमतारि से युद्ध किया था और वह हमारे हाथों मारा गया। शत्रुता का संस्कार लिए हुए उसकी आत्मा अनेक भवों को पार करती हुई एक बार तपस्वी बनी और तप के परिणामस्वरूप वह देव बना। पूर्वभव के वैमनस्य के कारण ही इस भव में मेरी प्रशंसा जब ईशानेन्द्र ने की, तो वह उसके लिए असह्य हो गयी थी।
देव तो अदृश्य हो गया था। बाज और कबूतर ने अपने पूर्व भव का वृत्तान्त सुना तो उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वे महाराज मेघरथ से विनयपूर्वक निवेदन करने लगे कि मानव-जीवन तो हमने व्यर्थ खो हीदिया था, यह भव भी हम पाप संचय में ही लगा रहे हैं। दया करके अब भी हमें मुक्ति का साधन बताइए। मेघरथ ने उन्हें अनशन व्रत का निर्देश दिया और इस साधन द्वारा उन्हें देवयोनि प्राप्त हो गयी।
एक ओर भी प्रसंग उललेखनीय है जो साधना में उनकी अडिगता का परिचय देता है। वृत्तान्त इस प्रकार है कि एक समय मेघरथ कायोत्सर्गपूर्वक ध्यानलीन बैठे थे और स्वर्ग में ईशानेन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया। चकित होकर इन्द्राणियों ने यह जानना चाहा कि यह प्रणम्य कौन है, जिसे समस्त देवों द्वारा वन्दनीय इन्द्र भी आदर देता हो। ईशानेन्द्र ने तब मेघरथ का परिचय देते हुए कहा कि वे 16वें तीर्थंकर होंगे-उनका तप अचल है। कोई
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