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भगवान शान्तिनाथ
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राजा मेघरथ चिन्तन-मग्न बैठा था। सहसा एक निरीह पक्षी कबूतर, जो भय कम्पित था उसकी गोद में आ गिरा। राजा का ध्यान भंग हो गया। उसने देखा कि कबूतर किसी भयंकर विपत्ति में ग्रस्त है, बेचैन और बुरी तरह हाँफ रहा है। करुणा के साथ राजा ने अपने कोमल करों से उसे स्पर्श कर आश्वस्त किया। भयातुर कबूतर बाज से प्राण- रक्षा की प्रार्थना करने लगा। राजा ने उसे अभयदान देकर कहा कि 'अब तुम मेरे आश्रय में आ गए हो, कोई भी तुम्हारी हानि नहीं कर सकेगा, स्वस्थ हो जाओ।' इस रक्षण से कबूतर तनिक निर्भीकता का अनुभव करने ही लगा था कि एक बाज वहाँ आ उपस्थित हुआ। उसे देखकर वह फिर अधीर हो गया और कातरभाव से राजा से वह विनय करने लगा कि 'यही बाज मेरे पीछे पड़ा हुआ है, यह मेरे प्राणों का ग्राहक बना हुआ है-मेरी रक्षा कीजिए"मेरी रक्षा कीजिए।'
तुरन्त कठोर स्वर में बाज ने राजा से कहा कि 'कबूतर को छोड़ दीजिए-इस पर मेरा अधिकार है। यही मेरा खाद्य है। मेरा आहार शीघ्र ही मुझे दो, मैं भूखा हूँ।'
राजा ने उसे बोध दिया कि 'उदरपूर्ति के लिए जीव-हिंसा घोर पाप है-तुम इस पाप में न पड़ो। फिर इस पक्षी को तो मैंने अपनी शरण में ले लिया है। शरणागत की रक्षा करना मेरा धर्म है। तुम भी पाप में न पड़ो और मुझे भी मेरा कर्तव्य पूरा करने दो। क्यों व्यर्थ ही इस भोले पक्षी को त्रस्त किए हुए हो।' राजा ने इस उपदेश का बाज पर कोई प्रभाव होने हो क्यों लगा? उसने कुतर्कों का आश्रय लेते हुए कहा कि मैं भूखों मर रहा हूँ। इसका क्या हागा? क्या तुम्हें इसका पाप न चढ़ेगा?' राजा ने फिर भी कबूतर को छोड़ देने से इनकार करते हुए कहा कि 'मेरी पाकशाला में विविध व्यंजन तैयार हैं। चलो मेरे साथ और पेट भर कर आहार करो, अपनी भूख को शान्त कर लो।'
इस पर बाज ने कहा कि 'मैं तो मांसाहारी हूँ। तुम्हारी पाकशाला के भोज्य पदार्थ मेरे लिए अखाद्य हैं। मुझे मेरा कबूतर लौटा दो, बहुत भूख लगी है। ‘राजा बड़े असमंजस में पड़ गया। इसके लिए माँस की व्यवस्था कहाँ से करे? जीव-हिंसा तो वह कर ही नहीं सकता था और बाज ताजा मांस ही माँग कर रहा था।
बाज की भूख शान्त करने के लिए राजा ने अनुपम उत्सर्ग किया। उसने एक बड़ी तराजू मँगायी। उसके एक पलड़े में कबूतर को बैठाया और दूसरे पलड़े में वह अपने शरीर से माँस काट-काटकर रखने लगा। वह लोथ के लोथ अपने ही शरीर का मांस रखता जाता था, किन्तु वह कबूतर के भार से कम ही तुल रहा था। यहाँ तक कि राजा ने अपने शरीर का आधा मांस तराजू पर चढ़ा दिया, तथापि कबूतर भारी पड़ता रहा। उसका पलड़ा भूमि से ऊपर ही नहीं उठता था। राजा का शरीर क्षत-विक्षत और लहू-लुहान हो गया था। उसका धैर्य अब भी बना हुआ था, किन्तु शक्ति चुकती जा रही थी। उसने अपने मांस को कबूतर के भार के बराबर तोलकर बाज को खिलाना चाहा था, किन्तु उसका मांस जब लगातार कम ही पड़ता रहा, तो वह उठकर स्वयं ही पलड़े में बैठने को तत्पर हुआ उसके
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