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________________ 161 भगवान शान्तिनाथ (चिन्ह-मृग) भगवान धर्मनाथ स्वामी के अनन्तर भगवान शान्तिनाथ स्वामी 16वें तीर्थंकर हुए हैं। “कामदेव के स्वरूप को भी अपने शरीर की शोभा से तिरस्कृत करने वाले, हे शान्तिनाथ प्रभु! इन्द्रों का समूह निरन्तर आपकी सेवा-स्तुति करता रहता है, क्योंकि आप भव्य प्राणियों को रोगरहित करने व परमशान्ति देने वाले हैं।" पूर्वजन्म भगवान शान्तिनाथ स्वामी का समग्र जीवन सर्वजनहितायऔर अत्यन्त पवित्र था। उनकी तप-साधना की उपलब्धियाँ आत्म-कल्याणपरक ही नहीं, अपितु व्यापक लोकहितकारिणी थीं। प्रभु के इस जीवन की इन विशेषताओं का मूल जन्म-जन्मान्तरों के सुसंस्कारों में निहित था। अपने अनेक पूर्वभवों में आपने तीर्थंकर का नामकर्म उपार्जित किया था। प्राचीन काल में पुण्डरीकिणी नाम की एक नगरी थी। उस नगरी में घनरथ नाम का राजा राज्य करता था जिसके मेघरथ एवं दृढ़रथ-ये दो पुत्र थे। वृद्धावस्था में राजा घनरथ ने ज्येष्ठ कुमार गेघरथ का राज्याभिषेक कर राज्य का समस्त भार उसे सौंप दिया। नृपति के रूप में मेघरथ ने स्वयं को बड़ा न्यायी, यौग्य और कुशल सिद्ध किया। स्नेह के साथ प्रजा कापालन करना उसकी विशेषता थी। वह बड़ा शूरवीर, बलवान और साहसी तो था ही, उसके बलिष्ठ तन में अतिशय कोमल मन का ही निवास था। वह दयालु स्वभाव का और धर्माचारीथा। व्रत-उपवास, पौषध, नित्यनियमादि में वह कभी प्रमाद नहीं करता था। राजसी वैभव और अतुलनीय सुखोपभोग का अधिकारी होते हुए भी उसका मन इन विषयों में कभी नहीं रमा। तटस्थतापूर्वक वह अपने कर्तव्य को पूर्ण करने में ही लगा रहता था। वह सर्वथा आत्मानुशासित था और संयमित जीवन का अभ्यस्त था। आकर्षण और उत्तेजना से वह सदा अप्रभावित रहा करता था। इसी पुण्यात्मा का जीव आगामी जन्म में भगवान शान्तिनाथ के रूप में अवतरीत हुआ था। महाराज मेघरथ की करुणा भावना की महानता का परिचय एक प्रसंग से मिलता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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