SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान अनन्तनाथ 67 तीर्थंकरों की माताओं की ही भाँति रानी सुयशादेवी ने भी 14 दिव्यस्वप्नों का दर्शन किया, जिससे यह निश्चय हो गया कि रानी किसी महापुरुष की जननी बनेगी। फलत: उसके हृदय में ही नहीं; सारे राज-परिवार में उल्लास की लहर दौड़ गयी। . रानी सुयशादेवी ने यथासमय, वैशाख कृष्णा त्रयोदशी को पुष्य नक्षत्र में एक अत्यन्त तेजवान पुत्र को जन्म दिया। बालक के जन्म से सर्वत्र प्रसन्नता का ज्वार-सा आ गया। सभी 63 इन्द्रों ने मिलकर सुमेरु पर्वत पर पांडुक बन में भगवान का जन्म कल्याण मनाया। नवजात कुमार को भी देवतागण समारोह स्थल पर ले गए और क्रमश: सभी इन्द्रों ने उसे स्नान कराया। उत्सव समाप्ति पर बालक को पुन: माता के समीप लिटाकर देवतागण चले गए। 10 दिन तक सारेराज्य में आनन्दोत्सव होते रहे। बालक जब गर्भ में था, तब सशक्त और विशाल सेना ने अयोध्या नगरी पर आक्रमण किया था और राजा सिंहसेन ने उसे परास्त कर दिया था। अत: शिशु का नाम अनन्तकुमार रखा गया। गृहस्थ-जीवन सर्व प्रकार से सुखद और स्नेहपूर्ण वातावरण में युवराज अनन्तकुमार का लालन-पालन हुआ। बालक की रूप माधुरी पर मुग्ध देवतागण भी मानव रूप धारण कर इनकी सेवा में रहे। आयु-वृद्धि के साथ-साथ कुमार शनै:- शनैः यौवन की सारे अग्रसर होने लगे। युवा हो जाने पर कुमार अत्यन्त तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी हो गए थे। माता-पिता के अत्यन्ताग्रह से कुमार ने योग्य व सुन्दर नृप-कन्याओं के साथ पारिणग्रहण भी किया और कुछ काल सुखी दाम्पत्य-जीवन भी व्यतीत किया। साढ़े सात लाख वर्ष की आयु प्राप्त हो जाने पर पिता द्वारा उन्हें राज्यारूढ़ किया गया। तत्पश्चात् 15 लाख वर्ष तक महाराज अनन्तकुमार ने प्रजापालन का दायित्व निभाया। दीक्षाग्रहण व केवलज्ञान महाराज अनन्तकुमार की आयु जब साढ़े बाईस लाख वर्ष की हो गयी तब उनके मन में विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर लेने का भाव प्रबल होने लगा। उसी समय लोकांतिक देवों ने भी उनसे तीर्थ-स्थापना की प्रार्थनाएँ कीं। अनन्तकुमार ने राज्याधिकार का त्याग कर दिया और वर्षीदान में प्रवृत्त हो गए। मुक्त-हस्तता और उदारता के साथ वर्ष-पर्यन्त वे याचकों को दान देते रहे। किसी भी याचक को उनके द्वार से निराश नहीं लौटना पड़ा। गृह- त्याग करके भगवान सागरदत्ता शिविका में आरूढ़ होकर नगर- बाह्य स्थित सहस्राभवन में पधारे। वहाँ वैशाख कृष्णा चतुर्दशी को भगवान ने स्वयं ही दीक्षा ग्रहण करली। उन्हें इस हेतु किसी गुरु की अपेक्षा का अनुभव ही नहीं हुआ। दीक्षित होते ही प्रभु मन:पर्यवज्ञानी हो गए थे। दूसरे दिन वर्द्धमान मनगराधिपति महाराज विजय के आतिथ्य में भगवान का दीक्षोपरांत प्रथम पारणा हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy