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________________ 68 चौबीस तीर्थंकर तीन मास तक भगवान अनन्तनाथ ने नाना भाँति के कठोर तप व साधनाएँ की और जनपद में सतत् रूप से विहार करते रहे। अन्तत: उनका आगमन अयोध्या नगरी के उसी सहस्राभ्रवन में हुआ, वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे वे ध्यानस्थ हो गए। वह वैशाख कृष्णा चतुर्दशी का दिन था जब रेवती नक्षत्र में प्रभु ने 4 घातिक कर्मों का क्षय कर अक्षय केवलज्ञान-केवलदर्शन की दुर्लभ उपलब्धि को सुलभ कर लिया। अब भगवान केवली हो गए थे। धर्मदेशना देवताओं ने भगवान अनन्तनाथ द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति से अवगत होकर अपार हर्ष व्यक्त किया और केवलज्ञानोत्सव मनाया। समवसरण की रचना हुई; जिसमें भगवान की देशना से प्रतिबोधित होने को द्वादश प्रकार की परिषदें एकत्रित हुईं। चतुर्विध संघ स्थापित कर भगवान भाव तीर्थंकर कहलाए। तत्कालीन वासुदेव पुरुषोत्तम द्वारिका का नरेश था। भगवान समवसरण के पश्चात् विहारकरते हुए जब द्वारिका पधारे, तो उनके नगर के उद्यान में पहुँचने की सूचना पाकर वासुदेव पुरुषोत्तम ने तत्काल वहीं खड़े होकर प्रभु को सभक्ति प्रणाम किया और तत्पश्चात् अपने अग्रज सुप्रभ बलदेव के साथ भगवान की वन्दनार्थ उद्यान में आया। प्रभु ने अपने देशना में समता और क्षमा का महत्त्व बड़े प्रभावपूर्ण ढंग से प्रकट किया था, जिसके श्रवण से वासुदेव के चित्त को अपूर्व भांति मिली। उसका मन ऐसी विशिष्ट दशा को प्राप्त हो गया था कि उसने सम्यक्त्व अंगीकार कर लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि उसकी कठोरता और क्रूरता नष्ट हो गयी और शासनकार्य में सौजन्य आगया, मृदुलता आ गयी। बलदेव सुप्रभ ने प्रथमत: श्रावकधर्म स्वीकार किया और अन्त में विरक्त होकर मुनिधर्म अंगीकार किया और मुक्ति- पद की प्राप्ति की। यह प्रसंग एक उदाहरण मात्र है। भगवान सुविशाल क्षेत्र में सतत् रूप से विचरणशील रहकर जन-जन के उद्धार में ही व्यस्त रहे। परिनिर्वाण अन्तिम समय में भगवान अनन्तनाथ ने 1000 साधुओं के साथ । मास का अनशन आरंभ किया। चैत्र शुक्ला पंचमी को रेवती नक्षत्र के योग में सकल कर्मों का क्षय कर भगवान सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। प्रभु को निर्वाण पद की प्राप्ति हो गयी। धर्म परिवार 50 गणधर केवली मन:पर्यवज्ञानी 5,000 4,500 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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