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भगवान अनन्तनाथ
(चिन्ह-बाज)
भगवान विमलनाथ के पश्चात् 14वें तीर्थंकर भगवान अनन्तनाथ हुए है।
"हे स्याद्वादियों के अधिपति अनन्त जिन! आप पाप, मोह, वैर और अन्त से रहित है। लोभवर्जित, दम्भरहित तथा प्रशस्त तर्क वाले भी हैं। आपकी सेवा करने वालों को आप पापरहित और सच्चरित्र बना देते हैं।"
पूर्वजन्म
धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वी भाग में ऐरावत क्षेत्र था जिसके अन्तर्गत अरिष्टा नाम की एक नगरी थी। पद्मरथ महाराज यहीं के नरेश थे जो भगवान अनन्तनाथ के जीव के पूर्व धारक थे। राजा पद्मरथ शूरवीरों और पराक्रमियों की पंक्ति में अग्रगण्य समझे जाते थे और उन्होंने अनेक राजाओं को परास्त कर अपने अधीन बना रखा था। अपार वैभव और विशाल राज्य-सत्ता के स्वामी थे, किन्तु उनका मन इन विषयों में कभी भी रमा नहीं था। मोक्ष की तुलना में ये उपलब्धियाँ उन्हें तुच्छ प्रतीत होती थीं। वे उसी सच्ची सम्पदा को प्राप्त करने के प्रबल अभिलाषी थे। अत: एक दिन इन समस्त सांसारिक विषयों को त्याग कर पद्मरथ वीतरागी हो गए और गुरु चित्तरक्ष के पास संयम ग्रहण कर प्रव्रजित हो गए। संयम, अर्हन्त-सिद्ध की भक्ति व अन्य साधनाओं के परिणाम-रूप में उन्होंने तीर्थंकर नाम-कर्म अर्जित कर लिया। इन्होंने शुभ ध्यानवस्था में देह- त्याग किया और पुष्पोत्तर विमान में बीस सागर की स्थिति वाले देव बने।
जन्म-वंश
सरयू नदी के तट पर पवित्र अयोध्या नगरी स्थित है। इक्ष्वाकुवंशीय राजा सिंहसेन यहाँ शासन करते थे। महाराज सिंहसेन की धर्मपत्नी का नाम रानी सुयशा था जो वस्तुत: पितृकुल और पति-कुल दोनों के यश की अभिवृद्धि करती थी। इसी राज-दम्पति की सन्तान भगवान अनन्तनाथ थे। श्रावण कृष्णा सप्तमी को रेवती नक्षत्र में पद्मनाथ के जीव का च्यवन हुआ और वह स्वर्ग से प्रस्थान कर माता सुयशारानी के गर्भ में समाया। अन्य
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