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________________ 64 चौबीस तीर्थंकर जन-जन के हितार्थ प्रभु ने प्रथम धर्म- देशना दी। इस देशना से द्वादश कोटि के प्राणियों को प्रतिबोध प्राप्त हुआ। अनेक व्यक्तियों को तीव्र प्रेरणा मिली और उन्होंने संयम स्वीकार लिया और साधक जीवन बिताने लगे। अनेक गृहस्थों ने भी गृहस्थी का त्याग किए बिना भी धर्म की साधना प्रारम्भ कर दी। इस प्रकार भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की और तेरहवें तीर्थंकर बने। धर्म-प्रभाव केवली बनकर भगवान विमलनाथ ने पुन: जनपद में विहार आरम्भ कर दिया। अपनी प्रभावपूर्ण देशनाओं द्वारा असंख्य जनों के उद्धार के महान् अभियान में प्रभु को व्यापक सफलता की उपलब्धि हुई। विचरण करते-करते प्रभु एक बार द्वारिका पहुँचे। समवसरण का आयोजन हुआ। प्रभु के आगमन की सूचना पाकर तत्कालीन द्वारिका नरेश स्वयंभू वासुदेव अत्यन्त हर्षित हुआ और सन्देशवाहक को साढ़े बारह करोड़ रौप्य मुद्राओं से पुरस्कृत किया। भगवान की अमृत वाणी का श्रवण करने राजा सपरिवार आया और भगवान की चरण वन्दना की। स्वयंभू वासुदेव ने भगवान के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए निवेदन किया कि प्रतिवासुदेव मेरक राजा के प्रति मेरे मन में द्वेष का भाव क्यों था? मैं उसके पराक्रम को सहन कर ही नहीं सका और प्रचण्ड युद्ध में उसे मौत के घाट उतार कर ही मैं अपने मन को शान्ति दे सका-इसका क्या कारण है ? इस द्वेष का आधार क्या था? प्रभु, कृपा पूर्वक मुझे इसकी जानकारी प्रदान कीजिए। भगवान ने अपनी शीतल वाणी में इसका कारण प्रकट करते हुए कहा कि तुम दोनों में यह कट्टर शत्रुता का भाव पूर्वजन्म से था। भगवान ने सारी स्थिति भी स्पष्ट की किसी नगर में धनमित्र नामक राजा राज्य करता था, जिसका एक परम मित्र थाबलि। बलि भी कभी एक छोटे से राज्य का स्वामी था, किन्तु वह राज्य उसके हाथ से निकल चुका था। धनमित्र सहृदय शासक था। उसने विपन्नता की घड़ी में बलि का साथ न छोड़ा और सम्मानपूर्वक अपने राज्य में उसे आश्रय दिया। यह बलि बड़ा प्रपंची और कुत्सित मनोवृत्ति का था। जब दोनों मित्र जुआ खेल रहे थे तो एक कोमल स्थिति पर लाकर बलि ने धनमित्र को उत्तेजित कर उसका सारा राज्य दाँव पर लगवा दिया। परिणाम तो निश्चित था ही। धनमित्र के हाथ से उसका राज्य निकल गया। धनमित्र को उसके द्वारा किए गए उपकार का मूल्य जो मिला, उससे वह तिलमिला उठा। उसका मन प्रतिशोध की अग्नि से धधकने लगा। सुयोग से किन्हीं आचार्य के उपदेश से प्रेरित होकर वह संयमी बन गया, भिक्षु बन गया, किन्तु प्रतिशोध की वह आग अब भी ज्यों की त्यों थी। उसने संकल्प किया कि मेरी साधना का तनिक भी फल यदि मिला, तो मैं अगले जन्म में बलि से बदला अवश्य लूँगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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