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________________ 13) भगवान विमलनाथ (चिन्ह - शूकर) भगवान विमलनाथ तेरहवें तीर्थंकर हुए हैं। "जिसके निकट देवगण विद्यमान हैं, ऐसे उत्तम देदीप्यमान सिंहासन पर विराजित हे विमलनाथ! जो आपकी सेवा करते हैं, वे देव-प्रार्थनीय, निर्मल और प्रकाशमान सुख को प्राप्त करते हैं।" पूर्वजन्म धातकीखण्ड के अन्तर्गत महापुरी नगरी नामक एक राज्य था। महाराज पद्मसेन वहाँ के यशस्वी नरेश हुए हैं। वे अत्यन्त धर्मपरायण एवं प्रजावत्सल राजा थे। अन्त: प्रेरणा से वे विरक्त हो गए और सर्वगुप्त आचार्य से उन्होंने दीक्षा प्राप्त कर ली। प्रव्रजित होकर पद्मसेन ने जिनशासन की महत्त्वपूर्ण सेवा की थी। उन्होंने कठोर संयमाराधना की और तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया था। आयुष्य के पूर्ण होने पर समाधिभाव से देहत्याग कर वे सहस्रार कल्प में ऋद्धिमान देव बने। इन्हीं का जीव भगवान विमलनाथ के रूप में उत्पन्न हुआ था। जन्मवंश कपिलपुर के राजा कृतवर्मा इनके पिता और रानी श्यामादेवी इनकी माता थीं। सहस्रार कल्प से निकल कर पद्मसेन का जीव वैशाख शुक्ला द्वादशी को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र की शुभ घड़ी में माता के गर्भ में स्थित हुआ। गर्भ-धारण की रात्रि में ही माता रानी श्यामादेवी ने शुभसूचक 14 दिव्यस्वप्न देखें और फल जानकर अत्यन्त गर्वित एवं हर्षित हो उठी। वह सावधानीपूर्वक गर्भ को पोषित करने लगी और यथासमय उसने स्वर्णकान्ति पूर्ण देहवाले एक तेजस्वी और सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। वह शुभ घड़ी शुक्ला तृतीय को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में चन्द्र के योग की थी। उल्लसित प्रजाजन ने राज्य भर में और देवों ने सुमेरु पर्वत पर उत्साह के साथ जन्मोत्सव आयोजित किया। गर्भ की अवधि में माता तन-मन से निर्मल बनी रही। इसे बालक के गर्भस्थ होने का प्रभाव मानते हुए राजा कृतवर्मा ने इनका नाम विमलनाथ रखा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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