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भगवान वासुपूज्य
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हुआ था। आगामी जन्म में विन्ध्यशक्ति से प्रतिशोध लेने के लिए उसने संकल्प ले लिया।
भगवान ने स्पष्ट किया कि राजा पर्वत का जीव तुम्हारे (द्विपृष्ठ के) रूप में और विन्ध्यशक्ति का जीवन तारक के रूप में जन्मे हैं। उस संकल्प शक्ति के कारण ही तुम्हारे हाथों तारक का हनन हुआ है।
क्षमाशीलता की महत्ता पर भगवान की देशना का द्विपृष्ठ पर बड़ा गहरा प्रभाव हुआ। उसकी क्रोध-वृत्ति का शमन हो गय। उसने सम्यक्त्व एवं उसके भ्राता विजय बलदेव ने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया।
परिनिर्वाण
__ इस प्रकार भगवान व्यापक रूप से धर्म का प्रचार-प्रसार कर जन-जन का उद्धार करने में सचेष्ट बने रहे। अन्तिम समय में वे 600 मुनियों के साथ चम्पा नगरी पहुँच गए और सभी ने अनशन व्रत प्रारम्भ कर दिया। शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में पहुँच कर आपने समस्त कर्मराशि को क्षय कर दिया और सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बन गए। उन्होंने निर्वाण पद प्राप्त कर लिया। वह शुभ दिन आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी का और शुभ योग उत्तराभाद्रपद नक्षत्र का था।
धर्म परिवार
गणधर केवली मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रियलब्धिकारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका
66 6,000 6,100 5,400
1,200 10,000
4,700 72,000 1,00,000 2,15,000 4,36,000
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