SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 60 चौबीस तीर्थंकर प्रथम धर्म देशना _भगवान वासुपूज्य स्वामी ने अपनी प्रथम देशना में अपार जन-समुदाय को मोक्ष का मार्ग समझाया। प्रभु ने अपनी इन देशना में दशविध धर्म की व्याख्या की और चतुर्विध संघ स्थापित किया। वे भाव तीर्थंकर की अनुपम गरिमा से विभूषित हुए थे। धर्म-प्रभाव । भगवान वासुपूज्य स्वामी का प्रभाव सामान्य जनता से लेकर राजघरानों तक समानता के साथ व्याप्त था। वे जन-जन का मंगल करते हुए विचरण करते रहे। इसी प्रकार अपने विहार के दौरान एक समय वे द्वारिका पहुँच गए। वहाँ उस समय द्वितीय वासुदेव द्विपृष्ठ का राज्य था। कुछ ही समय पूर्व की चर्चा है कि द्विपृष्ठ का घोर शत्रु प्रतिवासुदेव तारक नामक एक अन्य राजा था, जो द्विपृष्ठ की प्रजा को कष्ट दिया करता था। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति अतिशय घृणा थी और वे परस्पर प्राणों के ग्राहक बने हुए थे। ये परिस्थितियाँ अपनी चरमावस्था में युद्ध के रूप में परिणत हो गयीं और प्रतिवासुदेव तारक द्वितीय वासुदेव द्विपृष्ठ के हाथों मारा गया था। भगवान वासुपूज्य के आगमन की शुभ सूचना पाकर द्विपृष्ठ बहुत प्रसन्न हुआ। उसके हर्षातिरेक का आभास इस तथ्य से भी लग सकता है कि प्रभु के पदार्पण की सूचना लाने वाले को नरेश ने 12 करोड़ मुद्राओं का पुरस्कार प्रदान किया था। अत्यन्त भक्ति भाव के साथ द्विपृष्ठ सपरिवार प्रभु की चरण-वन्दना करने को पहुँचा। भगवान ने उन्हें मनोविकारों को जीतने और क्षमाशील बनने की महती देशना दी। राजा द्विपृष्ठ के मन में ज्ञान की रश्मियाँ प्रसरित होने लगीं। उसने जिज्ञासावश भगवान को तारक के साथ का अपना सारा प्रसंग सुनाते हुए प्रश्न किया कि भगवान! क्या हम दोनों के मध्य पूर्वभवों का कोई वैर था? भगवान ने गम्भीरतापूर्वक 'हाँ' के आशय में मस्तक को हिलाया और इन दोनों के पूर्व जन्म की कथा सुनाने लगे। पर्वत नाम का एक राजा था, जो अपने नीतिनिर्वाह और प्रजा-पालन के लिए तो प्रसिद्ध था, किन्तु वह अधिक शक्तिशाली न था। इसके विपरीत एक अन्य राजा विन्ध्यशक्ति अत्यधिक शक्तिशाली तो था, किन्तु वह दुष्ट प्रवृत्तियों वाला था। पर्वत के राज्य में अनुपम लावण्यवती, संगीत-नृत्य-कलाओं में निपुण एक सुन्दरी गुणमंजरी रहा करती थी, जिस पर मुग्ध होकर विन्ध्यशक्ति ने पर्वत से उसकी माँग की। इस पर पर्वत ने स्वयं को कुछ अपमानित सा अनुभव किया। विन्ध्यशक्ति की कामान्धता और अनुचित व्यवहार के कारण पर्वत ने उसकी भर्त्सना की। विन्ध्यशक्ति ने कुपित होकर पर्वत पर आक्रमण कर दिया। युद्ध का परिणाम तो स्पष्ट था ही। विन्ध्यशक्ति के समक्ष बेचारा पर्वत कैसे टिक पाता? वह पराजित हो गया और विरक्त होकर उसने दीक्षा ले ली। उग्रतप भी उसने किए पर विन्ध्यशक्ति के प्रति शत्रुता व घृणा का भाव सर्वथा शान्त नही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy