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________________ भगवान वासुपूज्य किया कि हमें निराश न करो और विवाह के लिए स्वीकृति दे दो। हमारे स्वप्नों को आकार लेने दो। किन्तु कुमार वासुपूज्य अडिग बने रहे। पिता वसुपूज्य महाराजा ने यह भी कहा कि पुत्र, यदि तुम दीक्षा ग्रहण करना भी चाहते हो तो करो, कोई बाधा नहीं है किन्तु उसके पूर्व विवाह तो करलो! आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव एवं अन्य तीर्थंकरों के उदाहरण देते हुए राजा ने अपने पक्ष को पुष्ट किया कि वैराग्य के पूर्व उन सभी ने विवाह किए थे-गृहस्थ-धर्म का पालन किया था। इसी प्रकार की हमारी परम्परा रही है। युवराज को परम्परा का यह तर्क भी उनके विचार से डिगा नहीं सका। उन्होंने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि परम्परा का अन्धानुकरण अनुचित है। पूर्व तीर्थंकरों की आत्मा में मोहकर्म अवशिष्ट था। अत: उन्होंने विवाह किए। मुझ में मोहकर्म शेष नहीं रहा, अत: मुझे इसकी आवश्यकता ही नहीं है। व्यर्थ परम्परा-पालन के लिए मैं सांसारिक विषयों में नहीं पड़ना चाहता। उन्होंने यह कथन भी किया कि भविष्य में होने वाले तीर्थंकर मल्लिनाथ, नेमिनाम आदि भी अविवाहित अवस्था में ही दीक्षा ग्रहण करेंगे। वह भी तो कोई परम्परा बनेगी! जो कल उपयुक्त समझा जायगा, उसे आज अनुपयुक्त क्यों माना जाय? कुमार के अडिग संकल्प को देखकर माता-पिता बड़े निराश हुए। उनकी मानसिक वेदना का अनुमान लगाना भी कठिन है। वृद्ध माता-पिता सांसारिक बने बैठे हैं और नवयुवक पुत्र संयम ग्रहण करने को उतावला हो रहा है। किन्तु होना ऐसा ही था। माता-पिता ने कुमार का विचार परिवर्तित करने का प्रत्येक संभव प्रयास कर लिया, किन्तु उन्हें तनिक भी सफलता नहीं मिली। अन्तत: विवश होकर राजा-रानी ने अपने राजकुमार को दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति दे दी। दीक्षा एवं केवलज्ञान मर्यादानुरूप लोकान्तिक देवों ने वासुपूज्य से धर्म-तीर्थ के प्रवर्तन की प्रार्थना की। कुमार ने उदारतापूर्वक एक वर्ष तक विपुल दान दिया। वर्षीदान के सम्पन्न हो जाने पर दीक्षार्थ जब कुमार वासुपूज्य ने अभिनिष्क्रमण किया, तो इस महान् और अनुपम त्याग को देखकर जन-मन गद्गद् हो उठा था। आपने समस्त पापों का क्षय कर फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को शतभिषा नक्षत्र में श्रमणत्व अंगीकार कर लिया। महाराज सुनन्द (महापुर-नरेश) के यहाँ भगवान का प्रथम पारणा हुआ। छद्मस्थचर्या में रहकर भगवान वासुपूज्य ने कठोर साधनाएँ और तप किए। एक मास तक वे यत्र-तत्र विचरण करते रहे और फिर वे उसी उपवन में पहुंच गए। जहाँ उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। पाटल वृक्ष के नीचे उन्होंने ध्यान लगा लिया। शुक्लध्यान के द्वितीय चरण में पहुँच कर प्रभु ने चार घातिक कर्मों का क्षय कर दिया और उपवास की अवस्था में उन्होंने केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। अब प्रभु केवली हो गए थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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