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चौबीस तीर्थंकर
अथवा चक्रवर्ती पुत्र की जननी कहलाएगी। फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को शतभिषा नक्षत्र में ही प्रसन्नचित रानी ने पुत्र श्रेष्ठ को जन्म दिया।
कुमार वासुपूज्य के जन्म से राज्य भर में अतिशय हर्ष व्याप्त हो गया। पिता महाराजा वसुपूज्य ने 12 दिन का उत्सव आयोजित किया और नागरिक जनों ने महाराजा की सेवा में नाना प्रकार की भेंट प्रस्तुत कर हार्दिक उल्लास को व्यक्त किया। बालक वासुपूज्य दिव्य सौन्दर्य से सम्पन्न था। उसकी देह से कान्ति विकीर्ण होती थी। ममता और आनन्द, वैभव और सुख के वातावरण में बालक उत्तरोत्तर विकसित होता रहा। विवाह के योग्य आयु होने तक वासुपूज्य में पराक्रम और बलिष्ठता से साथ-साथ रूप और माधुर्य भी अपरिमित रूप में विकसति हो चुका था। प्रतिष्ठित नरेश अपनी कन्याओं का विवाह कुमार वासुपूज्य के साथ करने को लालायित रहते थे। अनेक प्रस्ताव आए। परमलावण्यवती राजकुमारियों के चित्रों का अम्बार-सा लग गया! सभी ओर एक अपूर्व उत्साह और उमंग भरा वातावरण देखकर कुमार वासुपूज्य ने अपने माता-पिता के विचार का अनुमान लगा लिया, किन्तु कुमार का संकल्प तो अविवाहित रूप में ही दीक्षा ग्रहण करने का था। क्षणभर के लिए तो इस विपरीत परिस्थिति को देखकर वे विचलित हो गए। माता की इस आकांक्षा से भी वे परिचित थे कि वे अपने पुत्र के लिए सुयोग्य बहू लाना चाहती है। यह भी जानते थे कि माता की यह साध पूर्ण न होने पर उन्हें कितनी वेदना होगी। पिता की यह मनोकामना भी अपूर्ण ही रहने को थी कि युवराज शासन सूत्र संभाल कर प्रजापालन करें। इस कारण भी कुमार वासुपूज्य के मन में एक विशेष प्रकार का द्वन्द्व मचा हुआ था तथापि वे कौमार्य व्रत पर अडिग भाव से टिके रहे।
यह प्रसंग खुल कर सामने आया। पिता ने कोमलता के साथ कहा-युवराज! हम तुम्हार विवाह तुम्हारी दृष्टि में उपयुक्त कन्या के साथ कर देना चाहते हैं और तब तुम्हें शासन का भार सौंप कर हम आत्म-कल्याण हेतु साधना-मार्गको अपनाना चाहते हैं। तुम जानते हो अब शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करना ही हमारा भावी लक्ष्य है।
धीर-गंभीर राजकुमार ने विनयपूर्वक उत्तर में निवेदन किया कि जिस शान्ति की कामना आपको है, मैं भी उसी का अभिलाषी हूँ। इस विषय में किसी आयु-विशेष का विधान भी नहीं है कि वृद्धावस्था में ही व्यक्ति शान्ति और मुक्ति की प्राप्ति का प्रयत्न करे, इससे पूर्व नहीं। आप जिस सांसारिक जाल से मुक्त होना चाहते हैं, उसी में मुझे क्यों ग्रस्त करना चाहते हैं? और जब मुझे सांसारिक विषयों से विरक्त होना ही है, तो फिर जान-बूझकर मैं पहले उसमें पडूं ही क्यों? ।
आपने पुत्र के दृष्टिकोण से अवगत होकर माता-पिता के हृदय को आघात लगा। वे अवाक् से रह गये। गृहस्थाश्रम के योग्य आयु में कुमार क्यों त्यागी हो जाना चाहता है ? उन्होंने अपने पुत्र के सम्बन्ध में जो-जो मधुर कल्पनाएँ पोषित कर रखी थीं, एक-बारगी ही वे सब चल-चित्र की भाँति आँखों के सामने से निकल गयीं। पिता ने फिर अनुरोध
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