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भगवान वासुपूज्य
( चिन्ह - महिष )
भगवान वासुपूज्य स्वामी बारहवें तीर्थंकर हुए हैं। आप प्रथम तीर्थंकर थे, जिन्होंने दृढ़तापूर्वक गृहस्थ- जीवन न जीकर और अविवाहित रहकर ही दीक्षा ग्रहण की।
पूर्व - जन्म
पुष्करद्वीप में मंगलावती विजय की रत्नसंचया नगरी के शासक पद्मोत्तर के जीवन में अध्यात्म का बड़ा महत्त्व था। उन्होंने सतत् रूप से जिन शासन की भक्ति की थी। ऐश्वर्य की अस्थिरता और जीवन की नश्वरता को वे भलीभाँति हृदयंगम कर चुके थे। अतः इन प्रवचनाओं से वे सदा दूर ही दूर रहे। जीवन की सार्थकता ओर उसका सदुपयोग किस में है ? इस प्रश्न को उन्होंने स्वतः चिन्तन द्वारा सुलझाया और अनुभव किया कि इस अनित्य शरीर के माध्यम से साधना करके अक्षुण्ण मोक्ष की प्राप्ति करने में ही जीवन का साफल्य निहित है। ऐसी मनोदशा में उन्हें गुरु वज्रनाभ के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्हें एक व्यवस्थित मार्ग मिल गया। राजा पद्मोत्तर ने उनके उपदेश से सर्वथा अनासक्त होकर संयम धारण कर लिया। अर्हद्भक्ति और अन्य साधनाओं द्वारा उन्होंने आत्मा का उत्थान किया एवं भाव तीर्थंकर के गौरव से विभूषित हुए। शुक्लध्यान में लीन पद्मोत्तर ने मरण प्राप्त कर प्राणत स्वर्ग में ऋद्धिमान देव के रूप में जन्म लिया। यही महाराज पद्मोत्तर का जीव आगे जलकर भगवान वासुपूज्य के रूप में अवतरित हुआ था ।
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जन्म - वंश
चम्पा नगरी में अत्यन्त पराक्रमी राजा वसुपूज्य का शासन था। उनकी धर्मपत्नी का नाम महारानी जया था। ये ही भगवान के अभिभावक थे। महाराज वसुपूज्य के पुत्र होने के नाते ही इनका नाम 'वासुपूज्य' रहा। ज्येष्ठ शुक्ला नवमी का शतभिषा नक्षत्र का वह पवित्र समय था जब पद्मोत्तर का जीव प्राणत स्वर्ग से च्युत होकर माता जयादेवी के गर्भ में स्थित हुआ था। उसी रात्रि में रानी ने 14 महान् स्वप्नों का दर्शन किया और भावी शुभ फलों के आभास मात्र से वह प्रफुल्लित हो गयी। उसे विश्वास था कि वह किसी तीर्थंकर
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