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________________ भगवान श्रेयांसनाथ इस उत्तर से अश्वग्रीव क्रूद्ध हो गया और अपार सैन्य के साथ उसने प्रजापति के राज्य पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों की ओर से घमासान युद्ध हुआ। युद्ध का कोई निर्णय निकलता न देखकर युद्ध के भयंकर विनाश को टालने के प्रयोजन से त्रिपृष्ठ ने प्रस्ताव रखा कि सेनाओं का युद्ध स्थगित कर दिया जाए और अश्वग्रीव मेरे साथ द्वन्द्व-युद्ध करे। अश्वग्रीव ने प्रस्ताव पर स्वीकृत दे दी और अब प्रचण्ड द्वन्द्व युद्ध शुरू हुआ। अन्ततः बलिष्ठ विपृष्ठ के हाथों अश्वग्रीव मारा गया। . त्रिपृष्ठ कितना निर्दयी और क्रर-कर्मी था-इसका परिचय भी एक घटना से मिलता है। उस काल का एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ एक बार राजा त्रिपृष्ठ के दरबार में आया। रात्रि के समय संगीत का आयोजन हुआ। त्रिपृष्ठ अपने द्वारपाल' को यह कर्त्तव्य सौंप कर शयनागार में चला गया कि मुझे निद्रा आ जाने पर संगीत रुकवा दिया जाए। संगीत की मधुर लहरियों में खोया मुग्ध द्वारपाल अपने इस कर्तव्य को भूल गया। राजा के सो जाने पर भी संगीत चलता रहा। जब त्रिपृष्ठ की नींद खुली तो संगीत चल रहा था। क्रोधित होकर उसने द्वारपाल से इसका कारण पूछा। द्वारपाल ने निरीहता के साथ अपना अपराध स्वीकार किया और कर्णप्रिय संगीत से वेसुध हो जाने का सार वृत्तान्त प्रस्तुत कर दिया। निर्दयतापूर्वक त्रिपृष्ठ ने उसे भयंकर दण्ड दिया। जिन कानों के कारण उसने कर्तव्य में भूल की थी, उनमें गर्म-गर्म पिघला हुआ सीसा उड़ेल दिया। बेचारे द्वारपाल ने तड़प-तड़प कर प्राण त्याग किए और निष्ठुर राजा क्रूर अट्टहास करता रहा। अपनी ऐसी-ऐसी निर्मम और दुष्ट प्रवृत्त्यिों के कारण त्रिपृष्ठ के सम्यक्त्व का नाश हो गया था और उसे 7वें नरक की यातनाएँ भोगनी पड़ी। त्रिपृष्ठ की मृत्यु पर शोकाकुल बलदेव भी हतचेता हो गया। सुध-बुध आने पर उसने प्रभु को ही एकमात्र त्राता मान कर उनके श्री चरणों का ध्यान किया, उनकी वाणी का स्मरण किया। उसके हृदय के बन्द द्वार पुन: खुल पड़े। उसका विवेक पुनर्जागृत हुआ और वह संसार की नश्वरता का प्रत्यक्षतः अनुभव करने लगा। विरक्ति का भाव प्रबलता के साथ उसके मन में जगने लगा और अन्तत: वह जगत से विमुख हो गया। आचार्य धर्मघोष का वचनामृत का पान कर वह दीक्षित हुआ एवं संयम, तप और साधना की शक्ति अर्जित करने लगा, जिसके परिणामस्वरूप वह समस्त कर्मों को क्षीण करने में समर्थ हुआ और सिद्ध, बुद्ध व मुक्त हो गया। अपने लिए मांगा क्योंकि अश्वग्रीव अपने राज्य के सभी उत्तम रत्नों को अपने लिए ही उपभोग्य समझता था। त्रिपृष्ठ को अश्वग्रीव की माँग अनुचित लगी। उन्होंने उसके दूत का तिरस्कार भी कर दिया और स्वयंप्रभा को देने से स्पष्ट इन्कार। इस पर अश्वग्रीव क्रद्ध हो गया। वह पोतनपुर पर चढ़ आया। रथावर्त पर्वत पर विपृष्ठ और अवश्ग्रीव में घोर युद्ध हुआ। अन्तत: अश्वग्रीव मारा गया और विपृष्ठ विजयी हुए। 1 त्रिषष्टिशलाका० में इसे शय्यापालक बताया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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