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चौबीस तीर्थंकर
धर्म-प्रभाव
भगवान श्रेयांसनाथ अत्यन्त लोकप्रिय उद्धारक थे। अनेक क्रूर अध्यवसायीजनों का हृदय परिवर्तन कर उन्हें सुमार्ग पर लाने में भगवान की सफलता के अनेक प्रसंग प्रसिद्ध हैं। एक दृष्टांत द्वारा प्रभु की इस अद्वितीय क्षमता का परिचय दिया जा सकता है।
केवली होने के अनंतर प्रभु विचरण करते-करते एक समय पोतनपुर पहुंचे। पोतनपुर उस समय की राजनीति का प्रसिद्ध केन्द्र था। अत्यन्त बलवान और पराक्रमी महाराजा त्रिपृष्ठ पोतनपुर के राजा थे जो प्रथम वासुदेव कहलाते हैं। भगवान जब नगर के उद्यान में पहुँचे तो आगमन का संदेश लेकर वहाँ का माली राजा की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान के पदार्पण की सूचना मात्र से विपृष्ठ हर्ष-विभोर हो गया। उसने संदेशवाहक माली को 12 करोड़ 50 लाख मुद्राएँ पुरस्कार में प्रदान की। अपने भ्राता बलदेव अचल के साथ राजा तुरंत भगवान की बंदना हेतु उद्यान में पहुँचा। भगवान श्रेयांसनाथ स्वामी की उत्प्रेरक वाणी से प्रभावित होकर दोनों बंधुओं ने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया। - यहाँ वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ठ और प्रथम बलदेव अचल का संक्षिप्त परिचय भी आवश्यक प्रतीत होता है। त्रिपृष्ठ राजा प्रजापति का पराक्रमी पुत्र था। इस काल के प्रथम प्रतिवासुदेव के रूप में राजा अश्वग्रीव था। उसे भविष्यवाणी द्वारा ज्ञात हुआ कि उसका संहारक कहीं वासुदेव रूप में जनम ले चुका हैं, तो वह भयातुर एवं चिंतित रहने लगा। विविध प्रकार से वह अपने शत्रु की शोध करने लगा। इधर प्रजापति-पुत्र त्रिपृष्ठ की पराक्रम गाथाओं को सुनकर उसे उस पर संदेह हुआ, जिसकी एक घटना से पुष्टि हो गई। अश्वग्रीव के राज्य में किसी शालि के खेतों में हिंस्र वनराज का आतंक था। प्रजा नित्य-प्रति की जनहानि से सदा भयभीत रहती थी। प्रजापति को इस विघ्न का विनाश करने के लिए अश्वग्रीव की ओर से निवेदन किया गया। दोनों कुमारों ने माँद में प्रवेश कर सोये सिंह को ललकारा और त्रिपृष्ठ ने क्रूद्ध सिंह के मुख को जीर्ण वस्त्र की भाँति चीर कर उसका प्राणांत कर दिया। इस पराक्रम प्रसंग से अश्वग्रीव को विश्वास हो गया कि त्रिपृष्ठ ही मेरा संहारक होगा और वह छल-बल से उसे समाप्त करने की योजनाएँ बनाने लगा। उसने एक सुन्दर उपक्रम यह किया कि शूर- वीरता के लिए दोनों बंधुओं को सम्मानित करने के लिए उन्हें अपने राज्य में निमंत्रित किया। इस बहाने वह दोनों को उनकी असावधानी में समाप्त कर देना चाहता था, किन्तु त्रिपृष्ड ने यह कहकर निमंत्रय अस्वीकार कर दिया कि जो एक सिंह को नहीं मार सका, उस राजा से सम्मानित होने में हमारा सम्मान नहीं बढ़ता।' 1 त्रिषष्टिशलाका० में यहाँ दूसरी भी घटना दी गई है। वह घटना इस प्रकार है
कुमार त्रिपृष्ठ का विवाह विद्याधर ज्वलनजटी की पुत्री स्वयंप्रभा से हुआ था। स्वयंप्रभा अनुपम सुन्दरी थी। पोतनपुर नरेश प्रजापति और विद्याधर ज्वलनजटी दोनों ही प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव के अधीन थे। उसने त्रिपृष्ठ की पत्नी स्वयंप्रभा को
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