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________________ भगवान श्रेयांसनाथ 53 सारे राज्य में नीतिशीलता, विवेक और धर्म-प्रवृत्ति प्रबल हो गयी थी। इन प्रभावों के आधार पर युवराज का नाम श्रेयांसकुमार रखा गया। वस्तुत: इनके जन्म से सारे देश का कल्याण (श्रेय) हुआ था। गृहस्थ-जीवन पिता महाराज विष्णु के अत्याग्रहवश श्रेयांस कुमार ने योग्य, सुन्दरी नृपकन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया। उचित वय प्राप्ति पर महाराजा विष्णु ने कुमार को राज्यारूढ़ कर उन्हें प्रजा-पालन का सेवाभार सौंप दिया एवं स्वयं साधना मार्ग पर अग्रसर हो गए। नृप के रूप में श्रेयांसकुमार ने अपने दायित्वों का पूर्णत: पालन किया। प्रजाजन के जीवन को दुःखों और कठिनाइयों से रक्षित करना-मात्र यही उनके राज्यत्व का प्रयोजन था। सत्ता का उपभोग और विलासी-जीवन व्यतीत करना उनका लक्ष्य कभी नहीं रहा। उनके राज्य में प्रजा सर्व भाँति प्रसन्न एवं सन्तुष्ट थी। जब श्रेयांसकुमार के पुत्र योग्य और दायित्व ग्रहण के लिए सक्षम हो गए तो उन्हें राज्य भार सौंपकर आत्म-कल्याण की साधना में रत हो जाने की कामना उन्होंने व्यक्त की। लोकान्तिक देवों ने इस निमित्त प्रभु से प्रार्थना की। राजा ने एक वर्ष तक अति उदारता के साथ दान-पुण्य किया उनके द्वार से कोई याचक निराश नहीं लौटा। दीक्षा एवं केवलज्ञान वर्षीदान सम्पन्न कर महाराज श्रेयांस ने गृहत्याग कर अभिनिष्क्रमण किया और सहस्राभ्रवन में पहुँचे। वहाँ अशोकवृक्ष तले उन्होंने समस्त पापों से मुक्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण करली। उस समय वे बेले की तपस्या में थे। दीक्षा लेते ही मुनि श्रेयांसनाथ ने मौन-व्रत अंगीकार कर लिया। दूसरे दिन सिद्धार्थपुर नरेश महाराज नन्द के यहाँ परमान्न से प्रभु का प्रथम पारणा हुआ। दीक्षोपरान्त दो महा तक भीषण उपसर्गों एवं परीषहों को धैर्यपूर्वक सहन करते हुए, अचंचल मन से साधनारत प्रभु ने विभिन्न बस्तियों में विहार किया। माघ कृष्णा अमावस्या के दिन क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर उन्होंने मोह को पराजित कर दिया और शुक्लध्यान द्वारा समस्त घातीकर्मों का क्षय कर, षष्ठ तप कर केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। प्रथम देशना समवसरण में देव मनुजों के अपार समुदाय को प्रभु ने केवली बनकर प्रथम धर्मदेशना प्रदान की। प्रभु ने चतुर्विध धर्मसंघ स्थापित किया एवं भाव तीर्थंकर पद पर प्रतिष्ठित हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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