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भगवान सुविधिनाथ
गृहस्थ-जीवन
पूर्व संस्कारों एवं उग्र तपस्याओं के प्रभावस्वरूप इसजन्म में कुमार सुविधिनाथ के व्यक्तित्व में अमित तेज, शक्ति, पराक्रम एवं बुद्धि तत्त्वों का अद्भुत समन्वय था । गृहस्थ जीवन को प्रभु ने एक लौकिक दायित्व के रूप में ग्रहण किया और तटस्थभाव से उन्होंने उसका निर्वाह भी किया। तीव्र अनासक्ति होते हुए भी अभिभावकों के आदेश का आदर करते हुए उन्होंने विवाह किया। सत्ता का भार भी सँभाला, किन्तु स्वभावतः वे चिन्तन की प्रवृत्ति में ही प्राय: लीन रहा करते थे।
उत्तराधिकारी के परिपक्व हो जाने पर महाराज सुविधिनाथ ने शासन कार्य उसे सौंप दिया और आप अपने पूर्व निश्चित् पन्थ पर अग्रसर हुए, अपना साधक जीवन प्रारम्भ किया ।
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दीक्षाग्रहण- केवलज्ञान
समस्त भोगावली के क्षीण हो जाने पर लोकान्तिक देवों की प्रार्थना पर भगवान वर्षीदान कर संयम स्वीकार करने को तत्पर हुए। प्रभु ने दीक्षा ग्रहण करने के लिए गृह-त्याग किया और आपके संग अन्य 1000 राजाओं नेभी निष्क्रमण किया । मृगशिर कृष्णा षष्ठी का वह पवित्र दिन भी आया जब मूल नक्षत्र के शुभ योग में प्रभु सुविधिनाथ ने सहस्राभ्रवन में सिद्धों की साक्षी में स्वयं ही दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा के पश्चात् तत्काल ही उन्हें मनः पर्यवज्ञान का लाभ हुआ । श्वेतपुर नरेश महाराजा पुष्प के यहाँ आगामी दिवस प्रभु का पारणा हुआ। दीक्षा समय से ही अपने मौनव्रत भी धारण कर लिया था ।
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आत्म- केन्द्रिय प्रभु सुविधिनाथ ने 4 माह तक सतत् रूप से दृढ़ ध्यान-साधना की । एकान्त स्थलों पर वे सर्वथा एकाकी रूप में आत्मलीन रहा करते। अनेक परीषहों और उपसर्गों को धैर्यपूर्वक झेलते हुए वे ग्रामानुग्राम विहार करते रहे। प्रभु का ध्यान उत्तरोत्तर उत्कट और आत्मा उन्नत होती चली गयी। अन्ततः सहस्राम्र उद्यान में एक दिन आपने क्षपक श्रेणी पर आरोहण किया। मालूर वृक्ष के नीचे कार्तिक शुक्ला तृतीया को वे शुक्लध्यान में लीन थे कि घातिक कर्म क्षीण हो गए और भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी।
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प्रथम धर्मदेशना
प्रभु केवली बन जाने पर समवसरण की रचना हुई। अतिशय प्रभावपूर्ण और उद्बोधन युक्त थी -१ - भगवान की प्रथम देशना, जिससे लाभान्वित होने हेतु सुर नर ही नहीं अनेक पशु-पक्षी भी एकत्रित हो गए थे। जीव- मैत्री का सृजन करने वाले उनके उद्भुत चमत्कारी व्यक्तित्व का अनुमान इससे लग सकता है कि घोर शत्रु साँप और नेवले, सिंह
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