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________________ चौबीस तीर्थंकर और बकरियाँ तक भय और हिंसा वृत्ति को विस्मृत कर स्नेह भाव से एकत्र बैठे थे- प्रभु की देशना - सभा में । 46 भगवान ने अपनी इस प्रथम देशना में सर्वजनहिताय दृष्टि से मुक्ति - मार्ग सुझाया; उस पर यात्रा की क्षमता विकसित करने वाले साधनों की व्याख्या की। आत्मा की अजस्र यात्रा का विवेचन करते हुए प्रभु ने कहा कि आत्मा अनादि काल से कर्म के जटिलतर पाशों में आबद्ध रहता है। कर्म के निश्चित फल भी होते हैं और वे आत्मा को ही भोगने पड़ते हैं। इन भावी कुफलों को जीव ध्यान में ही नहीं रखता और उल्टे-सीधे कर्म में व्यस्त रहता है। उसकी दृष्टि तो कर्मों के तात्कालिक सुखद स्वरूप पर ही रहती है - जो छलावा है, प्रवंचना है। वह अधिक से अधिक राग-द्वेष, काम-मोहादि में धँसता चला जाता हे और भावी अशुभ को प्रबलतर बनाता जाता है। यदि इन अशुभ कर्मों सेविमुख रहते हुए वह धर्म का आचरण करे, चित्त को उत्कर्ष दे, तो परम शुद्ध अवस्था प्राप्त कर सकता है - मुक्ति उसके लिए सुलभ हो जाती है। हजारों लाखों नर-नारी इस देशना से प्रबुद्ध हुए, उनका आत्मा जागृत हो गया और उन्हें मोक्ष अर्जित करने का लगाव हो गया। हजारों-लाखों गृहस्थों ने संसार त्याग दिया और मुनि जीवन जीने लगे। जो ऐसा न भी कर सके, ऐसे अनेक लोगों ने 12 व्रत धारण कि । प्रभु ने बड़े व्यापक पैमाने पर जनता का मंगल किया। उस काल में एक परम विद्वान पण्डित थे, जिनका नाम वराह था । वराह दीक्षित होकर भगवान के प्रथम गणधर बने और प्रभु के पावन सन्देश का प्रसारण करने लगे। भगवान की इस प्रथम देशना में ही चार तीर्थों की स्थापना हो गयी थी। इसी आधार पर वे भावतीर्थ कहलाए थे। परिनिर्वाण भगवान सुविधिनाथ स्वामी को जब अपना अन्त समय निकट ही लगने लगा तो वे चरम साधना हेतु सम्मेत शिखर पर पहुँचे और एक मास का अनशन प्रारम्भ किया। प्रभु का अनुसरण उसी स्थल पर एक हजार मुनि भी कर रहे थे। अन्ततः कर्मों का सर्वथा क्षय कर भाद्रपद कृष्णा नवमी को मूल नक्षत्र में प्रभु ने दुर्लभ निर्वाण पद प्राप्त कर लिया और वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। विशेष प्रागैतिहासकारों का व्यक्तव्य है कि भगवान सुविधिनाथ और आगामी अर्थात् 10वें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ के प्रादुर्भाव के मध्य की अवधि धर्मतीर्थ की दृष्टि से बड़ी शिथिल रही। यह 'तीर्थ विच्छेद काल' कहलाता है। इसकाल में जनता धर्मच्युत होने लगी थी । श्रावकगण मनमाने ढंग से दान आदि धर्म का उपदेश देने लगे। 'मिथ्या' का प्रचार प्रबलतर हो गया था। कदाचित् यही काल ब्राह्मण - संस्कृति के प्रसार का समय रहा था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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