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________________ ८४ बात-बात में बोध घड़े के आकार जितना हो जाता है और ढक्कन के नीचे रखें तो वह एकदम सीमित क्षेत्र में समा जाता है। इसी तरह आत्म प्रदेश एक समान होने पर भी उनमें संकोच व विस्तार होता रहता है। एक व्यक्ति बच्चा, जवान, बूढ़ा इस तरह नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है पर आत्मा उसमें एक ही रहती है सिर्फ प्रदेशों में संकोच विस्तार होता रहता है। राजेश-तुम तो गड़े हुए मतीरे के समान निकले। हमको पता ही नहीं था तुम्हारा ज्ञान इतना गहरा है। सुरेश–इतने वर्षों से साथ में रहते हैं पर पहली बार जाना है कि हमारा मित्र जैन दर्शन का अच्छा विद्वान है। रमेश-मैं कोई विद्वान नहीं हूँ, जेन दर्शन का विद्यार्थी मुझे अवश्य कह सकते हो। सौभाग्य से मैंने जैन कुल में जन्म लिया, घर पर जैन धर्म का प्रचुर साहित्य है। पिताजी को पढते देखकर मुझ में भी रुचि जागृत हुई और अब तक मैं कई पुस्तकों को पढ़ चुका हूँ। सुरेश-क्या जैन दर्शन की जानकारी हेतु कोई व्यवस्थित पाठ्यक्रम भी है ? रमेश-इसी उद्देश्य से जैन विश्वभारती अनेक वर्षों से एक सप्तवर्षीय पाठ्यक्रम चला रही है। इसके साथ ही पत्राचार पाठमाला का भी दो वर्षों का विशेष कार्यक्रम चाल है। मैं स्वयं पत्राचार पाठमाला की परीक्षा दे चुका हूँ और सप्तवर्षीय पाठ्यक्रम भी पूरा कर चुका हूँ। सुरेश-तभी तो हमको पराजित कर दिया। राजेश-मित्र ! बड़ा उपकार किया तुमने। हम तो इस शरीर को ही सब कुछ मान रहे थे। आत्मा परमात्मा के नाम से ही हमको एलर्जी थी। तुम ने हमारी आँखों से पर्दा हटा दिया । सुरेश-(रमेश से)-तुम्हारी इस सारगर्भित चर्चा से हमारे मन में भी प्रवचन सुनने का आकर्षण जगा है। सर्कस तो कई दिन चलेगा, फिर देख लेंगे। ऐसे महान पुरुषों के प्रवचनों का लाभ हम नहीं गंवायेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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