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________________ आत्मवाद विकसित रहता ही है अगर इतना ही न हो तो जीव-अजीव में अन्तर ही न रहे। सुरेश-अनन्तशक्ति सम्पन्न आत्मा स्वतन्त्र है या परतन्त्र ? रमेश-मुक्त आत्मा पूरी तरह स्वतन्त्र है, कोई भी उस पर कर्मों का बन्धन नहीं है। संसारी आत्मा स्वतन्त्र, परतन्त्र दोनों तरह की है। वह कर्म से जुड़ी हुई है, कर्मों का ग्रहण और उनका भोग ये दो प्रवृत्तियां उसमें पायी जाती है। कर्म ग्रहण में हर प्राणी स्वतन्त्र है पर कर्मों को भोगने में वह परतन्त्र है। किसी ने सुरापान किया उसमें व्यक्ति की स्वतन्त्रता है पर उसका परिणाम भोगने में वह परतन्त्र है। किसी से कर्ज लेने में व्यक्ति स्वतन्त्र है पर उसे वापस भुगताने में वह परतन्त्र हैं। इसी तरह कम भोग की बात को समझना चाहिए। कम भोग की बात भी निकाचित बन्धन सापेक्ष कही गई है। ऐसा कर्मों का ग्रहण जो तीव्र आसक्ति या करता के द्वारा हुआ हो। दलिक बन्धन अर्थात् कर्मों के ढीले बन्धन को तपस्या, स्वाध्याय, सेवा आदि सत्प्रवृत्ति के द्वारा आत्म प्रदेशों में ही भोग लिया जाता है । यह वैसा ही है जैसे गरिष्ठ भोजन हो जाने से अजीर्ण हो गया तो व्यक्ति ने कोई ऐसी दवा ले ली कि उसका कुप्रभाव शरीर पर नहीं हुआ। तपस्या आदि पुरुषार्थ अगर आत्मा नहीं करती, उस हालत में कर्म भोग के लिए वह पूरी तरह परतन्त्र है। राजेश-मित्र ! एक जिज्ञासा शेष रह गई है कि क्या सभी प्राणियों में आत्मा समान है? रमेश-चेतना के विकास में न्यूनाधिकता हो सकती है पर आत्मा चाहे चींटी की हो चाहे हाथी की, सब में समान है। असंख्य आत्म प्रदेश सब में समान रूप से व्याप्त हैं। सुरेश-क्या बाहरी आकार के आधार पर आत्मा में संकोच या विस्तार नहीं होता? रमेश-आत्मा में संकोच व विस्तार प्राणी के बाहरी आकार के आधार पर होता है पर आत्म प्रदेश न घटते है न बढते हैं। इसकी हम दीपक के प्रकाश से तुलना कर सकते हैं। दीपक को बड़े हाल में रखते हैं तो उसका प्रकाश पूरे हाल में फैल जाता है, छोटी कोटड़ी में रखें तो वह उस कोटड़ी तक सिमट जाता है, एक घड़े के नीचे रखें तो प्रकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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