SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बात-बात में बोध था, वह व्यक्ति ज्यादा सजग रहने लगा, धार्मिक क्रिया करने लगा। सब प्रकार की बुराइयों से अपने को दूर रखने लगा। छः महीने में परिणाम आया। अपने कार्यों के कारण राजा बनने वाला भिखारी बन गया और भिखारी बनने वाला राजा बन गया। ज्योतिषी से किसी ने पूछा-ऐसा कैसे हुआ ? उसने बताया-यह सारा इनके पुरुषार्थ का परिणाम है । पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य की रेखा भी बदली जा सकती है। विमल-तब तो हाथ पर हाथ रखकर किसी को बैठने की जरूरत नहीं और न भगवान को भी दोष देने की जरूरत है कि हाय ! भगवान तूं ने मेरे भाग्य में क्या लिख दिया ! प्रो० ओमप्रकाश---ठीक समझे हो तुम। भगवान को बीच में लाने की जरूरत भी नहीं है | हम स्वयं अपने सुख-दुःख के जिम्मेवार हैं। निराश होने की भी जरूरत नहीं है कि विधाता ने जो भाग्य में लिख दिया वह टलने का नहीं। बस ! निष्काम भाव से पुरुषार्थ करते जाओ परिणाम तो स्वतः आयेगा ही। महान व्यक्ति अपने सौभाग्य का लेख पुरुषार्थ की लिपि से लिखते हैं। विमल-यह तो अच्छा सिद्धान्त है जैन धर्म का। प्रो. ओमप्रकाश-और भी सुनो ! चौथी विशेषता है जैन धर्म की जिसने मुझे आकृष्ट किया, वह है---जातिवाद की अतात्त्विकता। किसी भी जाति या कुल में जन्म ले लेने मात्र से व्यक्ति ऊंचा या नीचा नहीं बन जाता। निम्न कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने उच्च आचरणों से ऊंचा हो सकता है और उच्च कुल में समुत्पन्न व्यक्ति अपने घृणित आचरणों से · नीचा हो सकता है। जाति आदि के आधार पर किसी मनुष्य को अस्पृश्य नहीं ठहराया जा सकता। जैन धर्म की पांचवीं विशेषता है-मृत्यु की कला का विज्ञान ! जीवन जीने की कला सभी धर्म सिखाते हैं पर मरने की कला केवल जैन धर्म ने ही बतायी है। सामान्यतया मृत्यु को विभीषिका हर व्यक्ति को सताती है पर जैन धर्म का ज्ञाता मृत्यु को हंसते-हंसते स्वीकार करेगा, मृत्यु को भी वह उत्सव बना लेगा। छठी विशेषता है-धर्म का मूल्य सम्प्रदाय से ऊपर है। किसी भी सम्प्रदाय में जन्म लेने वाला व्यक्ति धर्म की सर्वोच्च आराधना कर सकता है। पन्द्रह प्रकार के सिद्धों के विवेचन में बताया गया है कि अन्य सम्प्रदाय में, यहां तक कि गृही वेश में भी सिद्धत्व को पाया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy