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________________ जैन धर्म कमल- क्या जैन धर्म में स्त्री भी सिद्धत्व को पा सकती है ? प्रो० ओमप्रकाश--जैन धर्म में पुरुष की तरह स्त्री को भी साधना करने का पूरा अधिकार है। वह भी सिद्धत्व को पा सकती है। स्त्री और पुरुष का भेद सिर्फ लैङ्गिक है, आत्म स्वभाव की दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं। आत्मा न पुरुष है, न स्त्री और न नपंसक। ये लिंग तो शरीर जन्य है। भगवान ऋषभ की माता मरुदेवी की घटना तो बहुत प्रसिद्ध है। वे हाथी के हौदे पर बैठी स्त्री शरीर में ही सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुई थी। मरुदेवी मां की तरह अगणित स्त्रियों ने साधना करके उस अविनाशी शाश्वत् स्थान को प्राप्त किया है। ___ अन्य धर्मों में जहाँ स्त्री को पुरुष से नीचा दर्जा दिया गया है वहां जैन धर्म ने नारी को समानता व स्वतन्त्रता का पूरा अधिकार दिया है। यह जैन धर्म की मातवीं महत्त्वपूर्ण विशेषता है। ___आठवीं विशेषता है---धर्म का मध्यम मार्ग-अणुवत का निरूपण | गृहस्थ जीवन जीता हुआ भी व्यक्ति व्रतों को आराधना कर काफी हद तक धार्मिक जीवन जी सकता है। कमल- तो क्या गृहस्थ और साधु दोनों का धर्म अलग-अलग है ? प्रो० ओमप्रकाश-धर्म स्वरूपतः दोनों के लिए एक जैसा है । मात्र धर्माचरण के परिपालन की क्षमता के आधार पर गृहस्थ के लिए अणुव्रत और माधु के लिये महावत का विधान किया गया है । नवी विशेषता है- अपरिग्रह का सिद्धान्त । साधु के लिए विधान है कि वह अपरिग्रही रहे । गृहस्थ पूर्ण अपरिग्रही नहीं बन सकता । उसके लिए कहा गया-वह परिग्रह की सीमा रखे और जो है उसके उपभोग में आसक्ति भाव से बचता रहे। दसवीं विशेषता है - अनेकान्त । इसका अर्थ है- सापेक्ष दृष्टि से जानने का प्रयास करना। अनेक दृष्टियों से तथ्य को समझना । परिवार से लेकर विश्व की सभी समस्याओं को समाहित करने की इस सिद्धान्त में अपूर्व क्षमता है। ग्यारहवीं विशेषता है-हर आत्मा में परमात्मा बनने की स्वीकृति । जैन धर्म ईश्वर को कर्ता हर्ता नहीं मानता, पर वह हर आत्मा में ईश्वर बनने की योग्यता को स्वीकार करता है। भक्त सदा भक्त ही बना रहे यह उसे इष्ट नहीं है। अब तक अनन्त आत्माएं ईश्वर बन चुकी हैं और आगामी काल में भी इसी तरह की आत्माएं होती रहेगी। विमल-इतने महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैं जिस धर्म के, सचमुच वह महान है । मेरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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