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नयवाद
[ जिनेश्वरदास कुर्सी पर बैठे कोई पत्रिका पढ़ रहे हैं, दरवाजे पर खटखट की आवाज होती है ] खटखट....खट......
जिनेश्वरदास - राम्र ! जरा देखना, दरवाजा कौन खटखटा रहा है ।
( दूर से आवाज - जी हां, थोड़ी देर में ही नौकर राम का प्रवेश ) रामू - मालिक ! कोई सज्जन आये हैं आपसे मिलने के लिए और वे अपना नाम महावीर प्रसाद बता रहे हैं।
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जिनेश्वरदास - ओ हो ! महावीर प्रसाद ! मेरे बचपन का सहपाठी ! कुछ ही दिनों पूर्व उसका पत्र मिला था, जिसमें लिखा था मैं किसी विशेष कार्यक्रम में भाग लेने दिल्ली आ रहा हूं, नाते वक्त रात भर तुम्हारे यहां ठहरूंगा। मुझे ही चलकर उसको ससम्मान लाना चाहिए।
( स्वयं उठकर महावीर प्रसाद को लेकर आता है, कुछ ही समय में दोनों मञ्च पर उपस्थित होते हैं, दोनों कुर्सियों पर बैठ जाते हैं) जिनेश्वरदास - बहुत वर्षों के बाद मिलना हुआ है। एक समय था जब हम स्कूल में साथ-साथ पढ़ते थे, खेलते थे, लेकिन यादों में ही रह गये हैं ।
अब तो वे दिन केवल
महावीर प्रसाद - इस जीवन का क्रम कुछ ऐसा ही है । किसका यहां सनातन साथ रहा है । तुम दिल्ली में सर्विस करने लग गए और मैं दर्शन शास्त्र में एम० ए० करके पी० एच० डी० करने में लग गया। इसके बाद सरकार ने मुझे बीकानेर, डूंगर कॉलेज में लेक्चरर नियुक्त कर दिया । कुछ वर्ष वहां रहा। अभी दो वर्षों से राजस्थान यूनिवर्सिटी, जयपुर में दर्शन विभाग का प्रोफेसर हूँ। आगे से आगे मेरा प्रमोशन होता गया । विशेष गोष्ठियों में भी मुझे संस्थाओं द्वारा समय-समय पर निमन्त्रण मिलता रहता है। हाल ही में विविध धर्म और दर्शन पर एक दो दिवसीय सेमिनार जो कि सर्व धर्म सद्भाव समिति के द्वारा आयोजित था, जिसमें देश भर के चुने हुए २० विशिष्ट विद्वानों को बुलाया गया था, जिनमें एक मैं भी था, भाग लिया। फिर
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