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स्याद्वाद
सुख है तो उसका प्रतिपक्ष दुःख भी है, संयोग के साथ वियोग जुड़ा है। वह अनुकूल संयोगों में उन्मत्त नहीं होगा, प्रतिकूल संयोगों में विषादग्रस्त नहीं होगा। प्रिय के वियोग में वह व्यथित नहीं होगा,
और अप्रिय के वियोग में हर्षित नहीं होगा। वह जीवन को खेल समझकर जीयेगा। विरोधी स्थितियों में स्यादवाद का अनुयायी समता से रहना सीख जाएगा। समता का साधक व्यक्ति ही अहिंसा को जीवन में जी सकेगा। स्यादवाद का चौथा फलित है-निराशा से मुक्ति । व्यक्ति के आनन्द में अगर कोई बाधा है तो वह है निराशा । प्रतिकूल परिस्थितियां व्यक्ति को निराशा की ओर ढकेल देती है। ऐसे क्षणों में व्यक्ति जीवन से पलायन की बात सोचने लग जाता है। किन्तु स्यादवादी दुःख में भी सुख को देखता है, अलाभ में भी लाभ को देखता है। दो मित्र बस मे जा रहे थे। एक की जेब किसी ने काट ली। दूसरे मित्र ने पता लगने पर खेद व्यक्त किया। इस पर पहले मित्र ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा-मित्र ! खुशी मनाओं, मेरी दूसरी जेब सही सलामत हैं, जिसमें एक हजार रुपये पड़े थे, जो जेब कटी उसमें मात्र दश रुपये थे। मित्र उसकी सही सोच से बड़ा प्रभावित हुआ। यह होता है स्याद्वादी का चिन्तन । वह अभाव में भी भाव को खोज लेता है। किसी भी स्थिति में मन को उदास हताश नहीं होने देता। स्यावाद का पांचवां फलित है-अतिरिक्तिता के बोध का अभाव । सामान्य व्यक्ति जहां उच्चकुल, सुन्दररुप और भौतिक समृद्धि को पाकर गर्वोन्नत बन जाता है वहां स्याद्वाद का ज्ञाता इनमें अभिमानी नहीं बनता । वह नित्य-अनित्य, भाव-अभाव, आदि पदार्थ के धमों से परिचित होता है। समय व स्थितियां सदा एक सी नहीं रहती है यह बोध उसका सदा जागृत रहता है। स्यादवाद का छहा फलित है-तटस्थता का अभ्यास । तटस्थ जीवन जीना भी एक बहुत बड़ी कला है। स्यादवाद को जानने वाला सोचेगा, मैं क्यों किसी पक्ष में पड़ । आज जो मेरा है कल पराया भी बन सकता है, जो पराया है कल मेरा बन सकता है। प्रेम करने वाला घृणा व घृणा करने वाला प्रेम कर सकता है। क्योंकि हर व्यक्ति में
विरोधी युगलों का अस्तित्व है । एक छात्र-महोदय ! हमने सोचा था यह तो दर्शन शास्त्र का कोई गढ़
सिद्धान्त है लेकिन.........
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